Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ छहढाला पहली ढाल वैमानिक:-कल्पोत्पन्न, कल्पातीत । संसारी :- त्रस और स्थावर; अथवा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। पहली ढाल का लक्षण-संग्रह अकामनिर्जरा :- सहन करने की अनिच्छा होने पर भी जीव रोग, क्षुधादि सहन करता है। तीव्र कर्मोदय में युक्त न होकर जीव पुरुषार्थ द्वारा मंदकषायरूप परिणमित हो, वह। अग्निकायिक :- अग्नि ही जिसका शरीर होता है - ऐसा जीव । असंज्ञी : शिक्षा और उपदेश ग्रहण करने की शक्ति रहित जीव को असंज्ञी कहते हैं। इन्द्रिय :- आत्मा के चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। एकेन्द्रिय :- जिसे एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है - ऐसा जीव । गति नामकर्म :- जो कर्म जीव के आकार नारकी, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव जैसे बनाता है। गति :- जिसके उदय से जीव दूसरी पर्याय (भव) प्राप्त करता है। चिन्तामणि :- जो इच्छा करने मात्र से इच्छित वस्तु प्रदान करता है - ऐसा रत्न। तिर्यंचगति :- तिर्यंचगति नामकर्म के उदय से तिर्यंचों में जन्म धारणकरना। देवगति :- देवगति नामकर्म के उदय से देवों में जन्म धारण करना। पापकर्म के उदय में युक्त होने के कारण जिस स्थान में जन्म लेते ही जीव असह्य एवं अपरिमित वेदना अनुभव करने लगता है तथा दूसरे नारकियों द्वारा सताये जाने के कारण दुःख का अनुभव करता है तथा जहाँ तीव्र द्वेषपूर्ण जीवन व्यतीत होता है - वह स्थान । जहाँ पर क्षणभर भी ठहरना नहीं चाहता। नरकगति :- नरकगति नामकर्म के उदय से नरक में जन्म लेना। निगोद :- साधारण नामकर्म के उदय से एक शरीर के आस्रव से अनंतानंत जीव समानरूप से जिसमें रहते हैं, मरते हैं और पैदा होते हैं, उस अवस्थावाले जीवों को निगोद कहते हैं। नित्यनिगोद :- जहाँ के जीवों ने अनादिकाल से आज तक त्रसपर्याय प्राप्त नहीं की - ऐसी जीवराशि, किन्तु भविष्य में वे जीव त्रस-पर्याय प्राप्त कर सकते हैं। परिवर्तन :- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवरूप संसारचक्र में परिभ्रमण। पंचेन्द्रिय :- जिनके पाँच इन्द्रियाँ होती हैं - ऐसे जीव । पृथ्वीकायिक :- पृथ्वी ही जिन जीवों का शरीर है - वे। प्रत्येक वनस्पति :- जिसमें एक शरीर का स्वामी एक जीव होता है - ऐसे वृक्ष, फल आदि। भव्य :- तीन काल में किसी भी समय रत्नत्रय प्राप्ति की योग्यता रखनेवाले जीव को भव्य कहा जाता है। मन:- हित-अहित का विचार तथा शिक्षा और उपदेश ग्रहण करने की शक्ति सहित ज्ञान-विशेष को भाव मन कहते हैं। हृदय स्थान में आठ पंखुड़ियोंवाले कमल की आकृति समान जो पुद्गलपिण्ड, उसे जड़-मन अर्थात् द्रव्य-मन कहते हैं। मनुष्यगति :- मनुष्यगति नामकर्म के उदय से मनुष्यों में जन्म लेना अथवा उत्पन्न होना। मेरु:- जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में स्थित एक लाख योजन ऊँचा एक पर्वत विशेष। नरक:

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82