Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 47
________________ छहढाला चौथी ढाल पुण्य-पाप में हर्ष-विषाद का निषेध और तात्पर्य की बात पुण्य-पाप-फलमाहिं, हरख बिलखौ मत भाई। इसीप्रकार (लाओ) ग्रहण करो कि (सकल) पुण्य-पापरूप समस्त (जगदंदफंद) जन्म-मरण के द्वन्द्व [राग-द्वेष] रूप विकारी मलिन भाव (तोरि) तोड़कर (नित) सदैव (आतम ध्याओ) अपने आत्मा का ध्यान करो। भावार्थ :- आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है कि धन, मकान, दुकान, कीर्ति, नीरोगी शरीरादि पुण्य के फल हैं, उनसे अपने को लाभ है तथा उनके वियोग से अपने को हानि है - ऐसा न माने; क्योंकि परपदार्थ सदा भिन्न हैं, ज्ञेयमात्र हैं, उनमें किसी को अनुकूल-प्रतिकूल अथवा इष्ट-अनिष्ट मानना, वह मात्र जीव की भूल है; इसलिये पुण्य-पाप के फल में हर्ष-शोक नहीं करना चाहिए। यदि किसी भी परपदार्थ को जीव भला या बुरा माने तो उसके प्रति राग या द्वेष हुए बिना नहीं रहता। जिसने परपदार्थ - परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को वास्तव में हितकर तथा अहितकर माना है, उसने अनन्त परपदार्थों को रागद्वेष करने योग्य माना है और अनन्त परपदार्थ मुझे सुख-दुःख के कारण हैं - ऐसा भी माना है; इसलिये वह भूल छोड़कर निज ज्ञानानंद स्वरूप का निर्णय करके स्वोन्मुख ज्ञाता रहना ही सुखी होने का उपाय है। पुण्य-पाप का बन्ध वे पुद्गल की पर्यायें (अवस्थाएँ) हैं। उनके उदय में जो संयोग प्राप्त हों, वे भी क्षणिक संयोगरूप से आते-जाते हैं। जितने काल तक वे निकट रहें, उतने काल भी वे सुख-दुःख देने में समर्थ नहीं हैं। जैनधर्म के समस्त उपदेश का सार यही है कि - शुभाशुभभाव वह संसार है; इसलिये उसकी रुचि छोड़कर, स्वोन्मुख होकर निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक निज आत्मस्वरूप में एकाग्र (लीन) होना ही जीव का कर्त्तव्य है। सम्यक्चारित्र का समय और भेद तथा अहिंसाणुव्रत और सत्याणुव्रत का लक्षण सम्यज्ञानी होय, बहुरि दिढ़ चारित लीजै । यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसै फिर थाई।। लाख बात की बात यही, निश्चय उर लाओ। तोरि सकल जग दंद-फंद, नित आतम ध्याओ ।।९।। अन्वयार्थ :- (भाई) हे आत्मार्थी प्राणी! (पुण्य-फलमाहि) पुण्य के फल में (हरख मत) हर्ष न कर और (पाप-फलमाहि) पाप के फल में (विलखौ मत) द्वेष न कर [क्योंकि यह पुण्य और पाप] (पुद्गल परजाय) पुद्गल की पर्यायें हैं। [वे] (उपजि) उत्पन्न होकर (विनसै) नष्ट हो जाती हैं और (फिर) पुनः (थाई) उत्पन्न होती हैं। (उर) अपने अन्तर में (निश्चय) निश्चय से - वास्तव में (लाख बात की बात) लाखों बातों का सार (यही)

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