Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 45
________________ छहढाला चौथी ढाल अनन्तबार उत्पन्न हुआ, परन्तु आत्मा के भेदविज्ञान (सम्यग्ज्ञान अथवा स्वानुभव) के बिना जीव को वहाँ भी लेशमात्र सुख प्राप्त नहीं हुआ। ज्ञान के दोष और मनुष्यपर्याय आदि की दुर्लभता तातें जिनवर-कथित तत्त्व अभ्यास करीजे । और (संशय) संशय (विभ्रम) विपर्यय तथा (मोह) अनध्यवसाय [अनिश्चितता] को (त्याग) छोड़कर (आपो) अपने आत्मा को (लख लीजे) लक्ष्य में लेना चाहिये अर्थात् जानना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया तो] (यह) यह (मानुष पर्याय) मनुष्य भव (सुकुल) उत्तम कुल और (जिनवानी) जिनवाणी का (सुनिवौ) सुनना (इह विध) ऐसा सुयोग (गये) बीत जाने पर, (उदधि) समुद्र में (समानी) समाये - डूबे हुए (सुमणि ज्यों) सच्चे रत्न की भाँति [पुनः] (न मिलै) मिलना कठिन है। भावार्थ :-आत्मा और परवस्तुओं के भेदविज्ञान को प्राप्त करने के लिए जिनदेव द्वारा प्ररूपित सच्चे तत्त्वों का पठन-पाठन (मनन) करना चाहिए और संशय विपर्यय तथा अनध्यवसाय इन सम्यग्ज्ञान के तीन दोषों को दूर करने के आत्मस्वरूप को जानना चाहिए; क्योंकि जिसप्रकार समुद्र में डूबा अमूल्य रत्न पुनः हाथ नहीं आता; उसीप्रकार मनुष्य शरीर, उत्तम श्रावककल और जिनवचनों का श्रवण आदि सुयोग भी बीत जाने के बाद पुनः-पुनः प्राप्त नहीं होते । इसलिये यह अपूर्व अवसर न गंवाकर आत्मस्वरूप की पहिचान (सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति) करके, यह मनुष्य-जन्म सफल करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान की महिमा और कारण धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै। ज्ञान आपकी रूप भये, फिर अचल रहावै ।। तास ज्ञान को कारन, स्व-पर विवेक बखानौ । कोटि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ ।।७।। संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे ।। यह मानुष पर्याय, सुकुल, सुनिवौ जिनवानी। इह विध गये न मिले, सुमणि ज्यौं उदधि समानी ।।६।। अन्वयार्थ :- (तात) इसलिये (जिनवर-कथित) जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए (तत्त्व) परमार्थ तत्त्व का (अभ्यास) अभ्यास (करीजे) करना चाहिए १. संशयः - विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः = "इसप्रकार है अथवा इसप्रकार?" - ऐसा जो परस्पर विरुद्धतापूर्वक दो प्रकार रूप ज्ञान, उसे संशय कहते हैं। २. विपर्ययः - विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः = वस्तुस्वरूप से विरुद्धतापूर्वक "यह ऐसा ही है" - इसप्रकार एकरूप ज्ञान का नाम विपर्यय है। उसके तीन भेद हैं - कारणविपर्यय, स्वरूपविपर्यय तथा भेदाभेदविपर्यय । (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ १२३) ३. अनध्यवसायः - किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः = 'कुछ है' - ऐसा निर्णयरहित विचार, सो अनध्यवसाय है।

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