Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 44
________________ छहढाला चौथी ढाल है। यह सम्यग्ज्ञान ही जन्म, जरा और मृत्युरूपी तीन रोगों का नाश करने के लिए उत्तम अमृत-समान है। ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश के विषय में अन्तर कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान विन कर्म झरै जे । ज्ञानी के छिन में त्रिगप्ति तैं सहज टरै ते ।। अन्वयार्थ :- [जिस ज्ञान से] (केवलि भगवन्ता) केवलज्ञानी भगवान (सकल द्रव्य के) छहों द्रव्यों के (अनन्त) अपरिमित (गुन) गुणों को और (अनन्ता) अनन्त (परजाय) पर्यायों को (एकै काल) एक साथ (प्रकट) स्पष्ट (जानें) जानते हैं, [उस ज्ञान को] (सकल) सकल प्रत्यक्ष अथवा केवलज्ञान कहते हैं। (जगत में) इस जगत में (ज्ञान समान) सम्यग्ज्ञान जैसा (आन) दूसरा कोई पदार्थ (सुखकौ) सुख का (न कारन) कारण नहीं है। (इहि) यह सम्यग्ज्ञान ही (जन्मजरामृति-रोग-निवारन) जन्म, जरा [वृद्धावस्था] और मृत्युरूपी रोगों को दूर करने के लिए (परमामृत) उत्कृष्ट अमृत-समान है। ____ भावार्थ :- (१) जो ज्ञान तीनकाल और तीनलोकवर्ती सर्व पदार्थों (अनन्तधर्मात्मक सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों को) प्रत्येक समय में यथास्थित, परिपूर्ण रूप से स्पष्ट और एकसाथ जानता है, उस ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं; जो सकल प्रत्यक्ष है। (२) द्रव्य, गुण और पर्यायों को केवली भगवान जानते हैं, किन्तु उनके अपेक्षित धर्मों को नहीं जान सकते - ऐसा मानना असत्य है। तथा वे अनन्त को अथवा मात्र अपने आत्मा को ही जानते हैं, किन्तु सर्व को नहीं जानते - ऐसा मानना भी न्यायविरुद्ध है। केवली भगवान सर्वज्ञ होने से अनेकान्तस्वरूप प्रत्येक वस्तु को प्रत्यक्ष जानते हैं। (लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, प्रश्न - ८७) (३) इस संसार में सम्यग्ज्ञान के समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं मुनिव्रत धार अनन्तबार ग्रीवक उपजायो। पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायौ ।।५।। अन्वयार्थ :- [अज्ञानी जीव को] (ज्ञान बिना) सम्यग्ज्ञान के बिना (कोटि जन्म) करोड़ों जन्मों तक (तप तपैं) तप करने से (जे कर्म) जितने कर्म (झरे) नाश होते हैं (ते) उतने कर्म (ज्ञानी के) सम्यग्ज्ञानी जीव के (त्रिगुप्ति तैं) मन, वचन और काय की ओर की प्रवृत्ति को रोकने से निर्विकल्प शुद्ध स्वभाव से] (छिन में) क्षणमात्र में (सहज) सरलता से (टर्न) नष्ट हो जाते हैं। [यह जीव] (मुनिव्रत) मुनियों के महाव्रतों को (धार) धारण करके (अनन्तबार) अनन्तबार (ग्रीवक) नववें ग्रैवेयक तक (उपजायो) उत्पन्न हुआ, (पै) परन्तु (निज आतम) अपने आत्मा के (ज्ञान बिना) ज्ञान बिना (लेश) किंचित्मात्र (सुख) सुख (न पायो) प्राप्त न कर सका। भावार्थ :- मिथ्यादृष्टि जीव आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) के बिना करोड़ों जन्मों-भवों तक बालतप रूप उद्यम करके जितने कर्मों का नाश करता है, उतने कर्मों का नाश सम्यग्ज्ञानी जीव - स्वोन्मुख ज्ञातापने के कारण स्वरूपगुप्ति से - क्षणमात्र में सहज ही कर डालता है। यह जीव, मुनि के (द्रव्यलिंगी मुनि के) महाव्रतों को धारण करके उनके प्रभाव से नववें ग्रैवेयक तक के विमान में

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