Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 31
________________ छहढाला तीसरी ढाल को बदलने में निमित्त है, उसे "निश्चयकाल" कहते हैं। रात, दिन, घड़ी, घण्टा आदि को "व्यवहारकाल" कहा जाता है। - इसप्रकार अजीवतत्त्व का वर्णन हुआ। अब, आस्रवतत्त्व का वर्णन करते हैं। उसके मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग - ऐसे पाँच भेद हैं।८। (आस्रव और बन्ध दोनों में भेद :- जीव के मिथ्यात्व-मोह-रागद्वेषरूप परिणाम, वह भाव-आस्रव है और उन मलिन भावों में स्निग्धता, वह भाव-बन्ध है) आस्रवत्याग का उपदेश और बन्ध, संवर, निर्जरा का लक्षण ये ही आतम को दुःख-कारण, तातै इनको तजिये; जीवप्रदेश बँधे विधि सों सो, बंधन कबहुँ न सजिये। शम-दम तैं जो कर्म न आवै, सो संवर आदरिये; तप-बल तैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये ।।९।। अन्वयार्थ :- (ये ही) यह मिथ्यात्वादि ही (आतम को) आत्मा को (दुःख-कारण) दुःखका कारण हैं (तात) इसलिये (इनको) इन मिथ्यात्वादि को (तजिये) छोड़ देना चाहिए (जीवप्रदेश) आत्मा के प्रदेशों का (विधि सों) कर्मों से (बन्धै) बँधना, वह (बंधन) बन्ध [कहलाता है,] (सो) वह [बन्ध] (कबहुँ) कभी भी (न सजिये) नहीं करना चाहिए । (शम) कषायों का अभाव [और] (दम तैं) इन्द्रियों तथा मन को जीतने से (कर्म) कर्म (न आवै) नहीं आयें, वह (संवर) संवरतत्त्व है; (ताहि) उस संवर को (आदरिये) ग्रहण करना चाहिए। (तपबल तैं) तप की शक्ति से (विधि) कर्मों का (झरन) एकदेश खिर जाना, सो (निरजरा) निर्जरा है। (ताहि) उस निर्जरा को (सदा) सदैव (आचरिये) प्राप्त करना चाहिए। भावार्थ :- ये मिथ्यात्वादि ही आत्मा को दुःख का कारण हैं, किन्तु पर पदार्थ दुःख का कारण नहीं हैं; इसलिये अपने दोषरूप मिथ्याभावों का अभाव करना चाहिए। स्पर्शों के साथ पुद्गलों का बन्ध, रागादि के साथ जीव का बन्ध और अन्योन्य अवगाह वह पुद्गल जीवात्मक बन्ध कहा है। (प्रवचनसार, गाथा १७७) रागपरिणाम मात्र ऐसा जो भावबन्ध है, वह द्रव्यबन्ध का हेतु होने से वही निश्चयबन्ध है, जो छोड़ने योग्य है। (२) मिथ्यात्व और क्रोधादिरूप भाव-उन सबको सामान्यरूप से कषाय कहा जाता है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, देहली - पृष्ठ ४०) ऐसे कषाय के अभाव को शम कहते हैं। और दम अर्थात् जो ज्ञेय-ज्ञायक संकर दोष टालकर, इन्द्रियों को जीतकर, ज्ञानस्वभाव द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक (पृथक् परिपूर्ण) आत्मा को जानता है, उसे निश्चयनय में स्थित साधु वास्तव में जितेन्द्रिय कहते हैं। (स. गा. ३१)। स्वभाव-परभाव के भेदज्ञान द्वारा द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा उनके विषयों से आत्मा का स्वरूप भिन्न है - ऐसा जानना, उसे इन्द्रिय-दमन कहते हैं; परन्तु आहारादि तथा पाँच इन्द्रियों के विषयरूप बाह्य वस्तुओं के त्यागरूप जो मन्दकषाय है, उससे वास्तव में इन्द्रिय-दमन नहीं होता; क्योंकि वह तो शुभराग है, पुण्य है, इसलिये बन्ध का कारण है - ऐसा समझना। १. अपनी-अपनी पर्यायरूप से स्वयं परिणमित होते हुए जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में जो निमित्त हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं। जिसप्रकार कुम्हार के चाक को घूमने में धुरी (कीली)। कालद्रव्य को निश्चयकाल कहते हैं। लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही कालद्रव्य (कालाणु) हैं। दिन, घड़ी, घण्टा, मास - उसे व्यवहारकाल कहते हैं। (जैन सिद्धान्त प्रवेशिका) 31

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