Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ छहढाला तीसरी ढाल मोक्ष का लक्षण, व्यवहारसम्यक्त्व का लक्षण तथा कारण सकल कर्मत रहित अवस्था, सो शिव थिर सुखकारी । इहि विध जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी ।। देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो। येहु मान समकित को कारण, अष्ट-अंग-जुत धारो ।।१०।। (३) शुद्धात्माश्रित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्धभाव ही संवर है। प्रथम निश्चय सम्यग्दर्शन होने पर स्वद्रव्य के आलम्बनानुसार संवर-निर्जरा प्रारम्भ होती है। क्रमशः जितने अंश में राग का अभाव हो, उतने अंश में संवर-निर्जरारूप धर्म होता है। स्वोन्मुखता के बल से शुभाशुभ इच्छा का निरोध, सो तप है। उस तप से निर्जरा होती है। (४) संवर :- पुण्य-पापरूप अशुद्ध भाव (आस्रव) को आत्मा के शुद्धभाव द्वारा रोकना, सो भावसंवर है और तदनुसार नवीन कर्मों का आना स्वयं - स्वतः रुक जाये, सो द्रव्यसंवर है। (५) निर्जरा :- अखण्डानन्द निज शुद्धात्मा के लक्ष्य से अंशतः शुद्धि की वृद्धि और अशुद्धि की अंशतः हानि करना, सो भावनिर्जरा है; और उस समय खिरने योग्य कर्मों का अंशतः छूट जाना, सो द्रव्य-निर्जरा है। (लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका पृष्ठ ४५-४६ प्रश्न १२१)। (६) जीव-अजीवको उनके स्वरूप सहित जानकर स्व तथा पर को यथावत् मानना; आस्रव को जानकर उसे हेयरूप, बन्ध को जानकर उसे अहितरूप, संवर को पहिचानकर उसे उपादेयरूप तथा निर्जराको पहिचानकर उसे हित का कारण मानना चाहिए (मोक्षमार्ग प्रकाशक अध्याय ९, पृष्ठ ४६९)। १. आसव आदि के दृष्टांत :(१) आस्रव :- जिसप्रकार किसी नौका में छिद्र हो जाने से उसमें पानी आने लगता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि आस्रव के द्वारा आत्मा में कर्म आने लगते हैं। (२) बन्ध:- जिसप्रकार छिद्र द्वारा पानी नौका में भर जाता है, उसीप्रकार कर्मपरमाणु आत्मा के प्रदेशों में पहुँचते हैं (एक क्षेत्र में रहते हैं)। संवर :- जिसप्रकार छिद्र बन्द करने से नौका में पानी का आना रुक जाता है, उसीप्रकार शद्धभावरूप गुप्ति आदि के द्वारा आत्मा में कर्मों का आना रुक जाता है। (४) निर्जरा :-जिसप्रकार नौका में आये हुए पानी में से थोड़ा (किसी बर्तन में भरकर) बाहर फेंक दिया जाता है, उसीप्रकार निर्जरा द्वारा थोड़े-से कर्म आत्मा से अलग हो जाते हैं। (५) मोक्ष :- जिसप्रकार नौका में आया हुआ सारा पानी निकाल देने से नौका एकदम पानी रहित हो जाती है, उसीप्रकार आत्मा में से समस्त कर्म पृथक् हो जाने से आत्मा की परिपूर्ण शुद्धदशा (मोक्षदशा) प्रकट हो जाती है अर्थात् आत्मा मुक्त हो जाता है।।९।। अन्वयार्थ :- (सकल कर्मर्ते) समस्त कर्मों से (रहित) रहित (थिर) स्थिर-अटल (सुखकारी) अनन्त सुखदायक (अवस्था) दशा-पर्याय, सो (शिव) मोक्ष कहलाता है। (इहि विध) इसप्रकार (जो) जो (तत्त्वन की) सात तत्त्वों के भेदसहित (सरधा) श्रद्धा करना, सो (व्यवहारी) व्यवहार (समकित) सम्यग्दर्शन है। (जिनेन्द्र) वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी (देव) सच्चे देव (परिग्रह बिन) चौबीस परिग्रह से रहित (गुरु) वीतराग गुरु [तथा] (सारो) सारभूत (दयाजुत) अहिंसामय (धर्म) जैनधर्म (येहू) इन सबको (समकित को) सम्यग्दर्शन का (कारण) निमित्तकारण (मान) जानना चाहिए। सम्यग्दर्शन को उसके (अष्ट) आठ (अंगजुत) अंगों सहित (धारो) धारण करना चाहिए। भावार्थ :- मोक्ष का स्वरूप जानकर उसे अपना परमहित मानना चाहिए। आठ कर्मों के सर्वथा नाश पूर्वक आत्मा की जो सम्पूर्ण शुद्ध दशा (पर्याय) प्रकट होती है, उसे मोक्ष कहते हैं। वह दशा अविनाशी तथा अनन्त सुखमय है; - इसप्रकार सामान्य और विशेषरूप से सात तत्त्वों की अचल श्रद्धा करना, उसे व्यवहार-सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) कहते हैं। जिनेन्द्रदेव, वीतरागी (दिगम्बर जैन) गुरु तथा जिनेन्द्रप्रणीत अहिंसामय धर्म भी उस व्यवहार सम्यग्दर्शन के कारण हैं अर्थात् इन तीनों का यथार्थ श्रद्धान भी व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता 32

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