Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 30
________________ ५० छहढाला अन्वयार्थ :- जो (चेतनता - बिन) चेतनता रहित है (सो) वह (अजीव ) अजीव है; (ताके) उस अजीव के (पंच भेद) पाँच भेद हैं; (जाके पंच वरनरसगन्ध दो) जिसके पाँच वर्ण और रस, दो गन्ध और (वसू) आठ (फरस) स्पर्श (हैं) होते हैं, वह पुद्गलद्रव्य है। जो (जिय) जीव को [ और ] (पुद्गल को) पुद्गल को (चलन सहाई) चलने में निमित्त [ और ] ( अनरूपी) अमूर्तिक है, वह (धर्म) धर्मद्रव्य है। तथा (तिष्ठत) गतिपूर्वक स्थितिपरिणाम को प्राप्त [जीव और पुद्गल को] (सहाई) निमित्त (होय) होता है, वह (अधर्म ) अधर्म द्रव्य है। (जिन) जिनेन्द्र भगवान ने उस अधर्मद्रव्य को (बिन - मूर्ति) अमूर्तिक, (निरूपी) अरूपी कहा है। भावार्थ :- जिसमें चेतना (ज्ञान-दर्शन अथवा जानने-देखने की शक्ति) नहीं होती, उसे अजीव कहते हैं। उस अजीव के पाँच भेद हैं- पुद्गल, धर्म अधर्म, आकाश और काल । जिसमें रूप, रस, गंध, वर्ण और स्पर्श होते हैं, उसे पुद्गलद्रव्य कहते हैं। जो स्वयं गति करते हुए जीव और पुद्गल को चलने में निमित्तकारण होता है, वह धर्मद्रव्य है; तथा जो स्वयं (अपने आप ) गतिपूर्वक स्थिर रहे हुए जीव और पुद्गल को स्थिर रहने में निमित्तकारण है, वह अधर्मद्रव्य है । जिनेन्द्र भगवान ने इन धर्म, अधर्म द्रव्यों को तथा जो आगे १. धर्म और अधर्म से यहाँ पुण्य और पाप नहीं, किन्तु छह द्रव्यों में आने वाले धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक दो अजीव द्रव्य समझना चाहिए। 30 तीसरी ढाल कहे जायेंगे, उन आकाश और काल द्रव्यों को अमूर्तिक (इन्द्रिय- अगोचर ) कहा है ॥७॥ आकाश, काल और आस्रव के लक्षण अथवा भेद सकल द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो; नियत वर्तना निशिदिन सो, व्यवहारकाल परिमानो । यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन वच-काय त्रियोगा; मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा ।।८ ॥ अन्वयार्थ :- (जास में) जिसमें (सकल) समस्त (द्रव्य को) द्रव्यों का (वास) निवास है (सो) वह (आकाश) आकाश द्रव्य (पिछानो) जानना; (वर्तना) स्वयं प्रवर्तित हो और दूसरों को प्रवर्तित होने में निमित्त हो वह ( नियत ) निश्चय कालद्रव्य है; तथा (निशिदिन) रात्रि, दिवस आदि ( व्यवहारकाल) व्यवहारकाल (परिमानो) जानो। (यों) इसप्रकार (अजीव ) अजीवतत्त्व का वर्णन हुआ। (अब) अब (आस्रव) आस्रवतत्त्व (सुनिये) का वर्णन सुनो । (मन-वच-काय) मन, वचन और काया के आलम्बन से आत्मा के प्रदेश चंचल होनेरूप (त्रियोगा) तीन प्रकार के योग तथा (मिथ्यात्व अविरत कषाय) मिथ्यात्व, अविरत, कषाय (अरु) और (परमाद) प्रमाद (सहित) सहित (उपयोग) आत्मा की प्रवृत्ति, वह (आस्रव) आस्रवतत्त्व कहलाता है। भावार्थ :- जिसमें छह द्रव्यों का निवास है, उस स्थान को 'आकाश कहते हैं। जो अपने आप बदलता है तथा अपने आप बदलते हुए अन्य द्रव्यों १. जिसप्रकार किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें भस्म (राख) डाली जाये तो वह समा जाती है; फिर उसमें शर्करा डाली जाये तो वह भी समा जाती है; फिर उसमें सुइयाँ डाली जायें तो वे भी समा जाती हैं; उसीप्रकार आकाश में भी मुख्य अवगाहन शक्ति है; इसलिये उसमें सर्वद्रव्य एकसाथ रह सकते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को रोकता नहीं है। (जैन सिद्धान्त प्रवेशिका )

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