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छहढाला
पहली ढाल
सहन करता है। वहाँ से निकलकर अन्य स्थावर पर्यायें धारण करता है। त्रसपर्याय तो चिन्तामणि रत्न के समान अति दुर्लभता से प्राप्त होती है। वहाँ भी विकलत्रय शरीर धारण करके अत्यन्त दुःख सहन करता है। कदाचित् असंज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ तो मन के बिना दुःख प्राप्त करता है । संज्ञी हो तो वहाँ भी निर्बल प्राणी बलवान प्राणी द्वारा सताया जाता है। बलवान जीव दूसरों को दुःख देकर महान पाप का बंध करते हैं और छेदन, भेदन, भूख, प्यास, शीत, उष्णता आदि के अकथनीय दुःखों को प्राप्त होते हैं।
नरकगति के दुःख - जब कभी अशुभ-पाप परिणामों से मृत्यु प्राप्त करते हैं, तब नरक में जाते हैं। वहाँ की मिट्टी का एक कण भी इस लोक में आ जाये तो उसकी दुर्गंध से कई कोसों के संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मर जायें। उस धरती को छूने से भी असह्य वेदना होती है। वहाँ वैतरणी नदी, सेमलवृक्ष, शीत, उष्णता तथा अन्न-जल के अभाव से स्वतः महान दुःख होता है । जब बिलों में औंधे मुँह लटकते हैं, तब अपार वेदना होती है। फिर दूसरे नारकी उसे देखते ही कुत्ते की भाँति उस पर टूट पड़ते हैं और मारपीट करते हैं। तीसरे नरक तक अम्ब और अम्बरीष आदि नाम के संक्लिष्ट परिणामी असुरकुमार देव जाकर नारकियों को अवधिज्ञान के द्वारा पूर्वभवों के विरोध का स्मरण कराके परस्पर लड़वाते हैं; तब एक-दूसरे के द्वारा कोल्हू में पिलना, अग्नि में जलना, आरे से चीरा जाना, कढ़ाई में उबलना, टुकड़े-टुकड़े कर डालना आदि अपार दुःख उठाते हैं - ऐसी वेदनाएँ निरन्तर सहना पड़ती हैं । तथापि क्षणमात्र साता नहीं मिलती; क्योंकि टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी शरीर पारे की भाँति पुनः मिलकर ज्यों का त्यों हो जाता है। वहाँ आयु पूर्ण हुए बिना मृत्यु नहीं होती। नरक में ऐसे दुःख कम से कम दस हजार वर्ष तक तो सहना पड़ते हैं, किन्तु यदि उत्कृष्ट आयु का बंध हुआ तो तेतीस सागरोपम वर्ष तक शरीर का अन्त नहीं होता।
मनुष्यगति का दुःख - किसी विशेष पुण्यकर्म के उदय से यह जीव जब कभी मनुष्यपर्याय प्राप्त करता है, तब नौ महीने तक तो माता के उदर में ही पड़ा रहता है, वहाँ शरीर को सिकोड़कर रहने से महान कष्ट उठाना पड़ता है। वहाँ
से निकलते समय जो अपार वेदना होती है, उसका तो वर्णन भी नहीं किया जा सकता । फिर बचपन में ज्ञान के बिना, युवावस्था में विषय-भोगों में आसक्त रहने से तथा वृद्धावस्था में इन्द्रियों की शिथिलता अथवा मरणपर्यंत क्षयरोग
आदि में रुकने के कारण आत्मदर्शन से विमुख रहता है और आत्मोद्धार का मार्ग प्राप्त नहीं कर पाता।
देवगति का दुःख - यदि कोई शुभकर्म के उदय से देव भी हुआ, तो दूसरे बड़े देवों का वैभव और सुख देखकर मन ही मन दुःखी होता रहता है। कदाचित् वैमानिक देव भी हुआ, तो वहाँ भी सम्यक्त्व के बिना आत्मिक शांति प्राप्त नहीं कर पाता तथा अंत समय में मंदारमाला मुरझा जाने से, आभूषण और शरीर की कान्ति क्षीण होने से मृत्यु को निकट आया जानकर महान दुःख होता है और आर्तध्यान करके हाय-हाय करके मरता है। फिर एकेन्द्रिय जीव तक होता है अर्थात् पुनः तिर्यंचगति में जा पहुँचता है। इसप्रकार चारों गतियों में जीव को कहीं भी सुख-शांति नहीं मिलती। इस कारण अपने मिथ्यात्व भावों के कारण ही निरन्तर संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है।
पहली ढाल का भेद-संग्रह एकेन्द्रिय :- पृथ्वीकायिक जीव, अपकायिक जीव, अग्निकायिक जीव,
वायुकायिक जीव और वनस्पतिकायिक जीव । गति :- मनुष्यगति, तिर्यंचगति, देवगति और नरकगति । जीव :- संसारी और मुक्त। त्रस :- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । देव :- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक। पंचेन्द्रिय :- संज्ञी और असंज्ञी। योग :- मन, वचन और काय; अथवा द्रव्य और भाव । लोक :- ऊर्ध्व, मध्य, अधः । वनस्पति :- साधारण और प्रत्येक ।
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