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छहढाला
दूसरी ढाल
भावार्थ :- इस चरण से ऐसा समझना चाहिए कि मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र से ही जीव को दुःख होता है अर्थात् शुभाशुभ रागादि विकार तथा पर के साथ एकत्व की श्रद्धा, ज्ञान और मिथ्या आचरण से ही जीव दुःखी होता है; क्योंकि कोई संयोग सुख-दुःख का कारण नहीं हो सकता - ऐसा जानकर सुखार्थी को इन मिथ्याभावों का त्याग करना चाहिए । इसीलिये मैं यहाँ संक्षेप से उन तीनों का वर्णन करता हूँ।।१।।
__ अगृहीत-मिथ्यादर्शन और जीवतत्त्व का लक्षण जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधैं तिनमाहिं विपर्ययत्व । चेतन को है उपयोग रूप, विन मूरत चिन्मूरत अनूप ।।२।।
श्रद्धान करना, उसे अगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं। जीव ज्ञान-दर्शन उपयोगस्वरूप अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा है। अमूर्तिक, चैतन्यमय तथा उपमारहित है।
जीवतत्त्व के विषय में मिथ्यात्व (विपरीत श्रद्धा) पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनः न्यारी है जीव चाल । ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान ।।३।।
अन्वयार्थ :- (पुद्गल) पुद्गल (नभ) आकाश (धर्म) धर्म (अधर्म) अधर्म (काल) काल (इन ) इनसे (जीव चाल) जीव का स्वभाव अथवा परिणाम(न्यारी) भिन्न (है) है; [तथापि मिथ्यादृष्टि जीव] (ताकों)उस स्वभाव को (न जान) नहीं जानता और (विपरीत) विपरीत (मान करि) मानकर (देह में) शरीर में (निज) आत्मा की (पिछान) पहिचान (करे) करता है।
भावार्थ :- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये पाँच अजीव द्रव्य हैं । जीव त्रिकाल ज्ञानस्वरूप तथा पुद्गलादि द्रव्यों से पृथक् है, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव आत्मा के स्वभाव की यथार्थ श्रद्धा न करके अज्ञानवश विपरीत मानकर, शरीर ही मैं हूँ, शरीर के कार्य मैं कर सकता हूँ, मैं अपनी इच्छानुसार शरीर की व्यवस्था रख सकता हूँ - ऐसा मानकर शरीर को ही आत्मा मानता है। (यह जीवतत्त्व की विपरीत श्रद्धा है।) ।।३।।
मिथ्यादृष्टि का शरीर तथा परवस्तुओं सम्बन्धी विचार मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गो-धन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण ।।४।।
अन्वयार्थ :- (जीवादि) जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष (प्रयोजनभूत) प्रयोजनभूत (तत्त्व) तत्त्व हैं, (तिनमाहि) उनमें (विपर्ययत्व) विपरीत (सरधैं) श्रद्धा करना [सो अगृहीत मिथ्यादर्शन है] (चेतन को) आत्मा का (रूप) स्वरूप (उपयोग) देखना-जानना अथवा दर्शन-ज्ञान है [और वह] (विन मूरत) अमूर्तिक (चिन्मूरत) चैतन्यमय [तथा] (अनूप) उपमा रहित है।
भावार्थ :- यथार्थरूप से शुद्धात्मदृष्टि द्वारा जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन सात तत्त्वों की श्रद्धा करने से सम्यग्दर्शन होता है। इसलिये इन सात तत्त्वों को जानना आवश्यक है। सातों तत्त्वों का विपरीत