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छहढाला
दूसरी ढाल
पड़ता है - इत्यादि । इसप्रकार मोक्षदशा में निराकुलता नहीं मानता, वह मोक्षतत्त्व की विपरीत श्रद्धा है।
(३) अज्ञान :- अगृहीत मिथ्यादर्शन के रहते हुए जो कुछ ज्ञान हो, उसे अगृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं; वह महान् दुःखदाता है। उपदेशादि बाह्य निमित्तों के आलम्बन द्वारा उसे नवीन ग्रहण नहीं किया है, किन्तु अनादिकालीन है, इसलिये उसे अगृहीत (स्वाभाविक-निसर्गज) मिथ्याज्ञान कहते हैं ।।७।।
अगृहीत मिथ्याचारित्र (कुचारित्र) का लक्षण इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्त । यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत, सुनिये सुतेह ।।८।।
अन्वयार्थ :- (जो) जो (विषयनि में) पाँच इन्द्रियों के विषयों में (इन जुत) अगृहीत मिथ्यादर्शन तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान सहित (प्रवृत्त) प्रवृत्ति करता है (ताको) उसे (मिथ्याचरित्त) अगृहीत मिथ्याचारित्र (जानो) समझो। (यों) इसप्रकार (निसर्ग) अगृहीत (मिथ्यात्वादि) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान
और मिथ्याचारित्र का [वर्णन किया गया] (अब) अब (जे) जो (गृहीत) गृहीत [मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र] है (तेह) उसे (सुनिये) सुनो।
भावार्थ :- अगृहीत मिथ्यादर्शन तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान सहित पाँच इन्द्रियों के विषय में प्रवृत्ति,करना उसे अगृहीत मिथ्याचारित्र कहा जाता है। इन तीनों को दुःख का कारण जानकर तत्त्वज्ञान द्वारा उनका त्याग करना चाहिए।।८।।
गृहीत मिथ्यादर्शन और कुगुरु के लक्षण जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोईं चिर दर्शनमोह एव । अंतर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अम्बर सनेह ।।९।।
गाथा १० (पूर्वार्द्ध) धारै कुलिंग लहि महत भाव, ते कुगुरु जन्मजल उपलनाव; अन्वयार्थ :- (जो) जो (कुगुरु) मिथ्या गुरु की (कुदेव) मिथ्यादेव की और (कुधर्म) मिथ्या धर्म की (सेव) सेवा करता है, वह (चिर) अति दीर्घकाल तक (दर्शनमोह) मिथ्यादर्शन (एव) ही (पोर्षे) पोषता है। (जेह) जो
(अंतर) अंतर में (रागादिक) मिथ्यात्व-राग-द्वेष आदि (धरै) धारण करता है
और (बाहर) बाह्य में (धन अम्बर ) धन तथा वस्त्रादि से (स्नेह) प्रेम रखता है तथा (महत भाव) महात्मापने का भाव (लहि) ग्रहण करके (कुलिंग) मिथ्यावेषों को (धारे) धारण करता है, वह (कुगुरु) कुगुरु कहलाता है और वह कुगुरु (जन्मजल) संसाररूपी समुद्र में (उपलनाव) पत्थर की नौका समान है। __भावार्थ :- कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा करने से दीर्घकाल तक मिथ्यात्व का ही पोषण होता है अर्थात् कुगुरु, कुदेव और कुधर्म का सेवन ही गृहीत मिथ्यादर्शन कहलाता है।
परिग्रह दो प्रकार का है - एक अंतरंग और दूसरा बहिरंग। मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि अंतरंग परिग्रह हैं और वस्त्र, पात्र, धन, मकानादि बहिरंग परिग्रह हैं। वस्त्रादि सहित होने पर भी अपने को जिनलिंगधारी मानते हैं, वे कुगुरु हैं। "जिनमार्ग में तीन लिंग तो श्रद्धापूर्वक हैं। एक तो जिनस्वरूप-निग्रंथ दिगंबर मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकरूप दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकलिंग और तीसरा आर्यिकाओं का रूप - यह स्त्रियों का लिंग, इन तीन के अतिरिक्त कोई चौथा लिंग सम्यग्दर्शनस्वरूप नहीं है; इसलिये इन तीन के अतिरिक्त अन्य लिंगों को जो मानता है, उसे जिनमत की श्रद्धा नहीं है, किन्तु वह मिथ्यादृष्टि है। (दर्शनपाहुड गाथा १८)" इसलिये जो कुलिंग के धारक हैं, मिथ्यात्वादि अंतरंग तथा वस्त्रादि बहिरंग परिग्रह सहित हैं, अपने को मुनि मानते हैं, मनाते हैं, वे कुगुरु हैं। जिसप्रकार पत्थर की नौका डूब जाती है तथा उसमें बैठने वाले भी डूबते हैं; उसीप्रकार कुगुरु भी स्वयं संसारसमुद्र में डूबते हैं और उनकी वंदना तथा सेवा-भक्ति करनेवाले भी अनंत संसार में डूबते हैं अर्थात् कुगुरु की श्रद्धा, भक्ति, पूजा, विनय तथा अनुमोदना करने से गृहीत मिथ्यात्व का सेवन होता है और उससे जीव अनंतकाल तक भव-भ्रमण करता है।।९।।
गाथा १० (उत्तरार्द्ध)
कुदेव (मिथ्यादेव) का स्वरूप जो राग-द्वेष मलकरि मलीन, वनिता गदादिजुत चिह्न चीन ।।१०।।
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