Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 22
________________ ३४ छहढाला दूसरी ढाल शरीर को कष्ट देनेवाली (आतम अनात्म के) आत्मा और परवस्तुओं के (ज्ञानहीन) भेदज्ञान से रहित (तन) शरीर को (छीन) क्षीण (करन) करनेवाली (विविध विध) अनेक प्रकार की (जे जे करनी) जो-जो क्रियाएँ हैं, वे सब (मिथ्याचारित्र) मिथ्याचारित्र हैं। भावार्थ :- शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान न होने से जो यश, धनसम्पत्ति, आदर-सत्कार आदि की इच्छा से मानादि कषाय के वशीभूत होकर शरीर को क्षीण करनेवाली अनेक प्रकार की क्रियाएँ करता है, उसे "गृहीत मिथ्याचारित्र” कहते हैं। मिथ्याचारित्र के त्याग का तथा आत्महित में लगने का उपदेश ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पंथ लाग। जगजाल-भ्रमण को देहुत्याग, अबदौलत! निज आतमसुपाग।।१५।। समस्त (श्रुत) शास्त्रों को (अभ्यास) पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और सुनाना (सो) वह (कुबोध) मिथ्याज्ञान [है; वह] (बहु) बहुत (त्रास) दुःख को (देन) देने वाला है। भावार्थ :- (१) वस्तु अनेक धर्मात्मक है; उसमें से किसी भी एक ही धर्म को पूर्ण वस्तु कहने के कारण से दूषित (मिथ्या) तथा विषय-कषायादि की पुष्टि करने वाले कुगुरुओं के रचे हुए सर्व प्रकार के मिथ्या शास्त्रों को धर्मबुद्धि से लिखना-लिखाना, पढ़ना-पढ़ाना, सुनना और सुनाना; उसे गृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं। (२) जो शास्त्र जगत में सर्वथा नित्य, एक, अद्वैत और सर्वव्यापक ब्रह्ममात्र वस्तु है, अन्य कोई पदार्थ नहीं है - ऐसा वर्णन करता है, वह शास्त्र एकान्तवाद से दूषित होने के कारण कुशास्त्र है। (३) वस्तु को सर्वथा क्षणिक-अनित्य बतलायें, अथवा (४) गुण-गुणी सर्वथा भिन्न हैं, किसी गुण के संयोग से वस्तु है - ऐसा कथन करें अथवा (५) जगत का कोई कर्ता-हर्ता तथा नियंता है - ऐसा वर्णन करें, अथवा (६) दया, दान, महाव्रतादिक शुभ राग; जो कि पुण्यास्रव है, पराश्रय है, उससे तथा साधु को आहार देने के शुभभाव से संसार परित (अल्प, मर्यादित) होना बतलायें तथा उपदेश देने के शुभभाव से परमार्थरूप धर्म होता है - इत्यादि अन्य धर्मियों के ग्रन्थों में जो विपरीत कथन हैं, वे एकान्त और अप्रशस्त होने के कारण कुशास्त्र हैं; क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तत्त्वों की यथार्थता नहीं है। जहाँ एक तत्त्व की भूल हो, वहाँ सातों तत्त्व की भूल होती ही है - ऐसा समझना चाहिए। गृहीत मिथ्याचारित्र का लक्षण जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध विध देहदाह । आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन ।।१४ ।। अन्वयार्थ :- (जो) जो (ख्याति) प्रसिद्धि (लाभ) लाभ तथा (पूजादि) मान्यता और आदर-सन्मान आदि की (चाह धरि) इच्छा करके (देहदाह) अन्वयार्थ :- (ते) उस (सब) समस्त (मिथ्याचारित्र) मिथ्याचारित्र को (त्याग) छोड़कर (अब) अब (आतम के) आत्मा के (हित) कल्याण के (पंथ) मार्ग में (लाग) लग जाओ, (जगजाल) संसाररूपी जाल में 22

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