Book Title: Chahdhala
Author(s): Maganlal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ छहढाला पहली ढाल अन्वयार्थ :- (जो) यदि (विमानवासी) वैमानिक देव (ह) भी (थाय) हुआ [तो वहाँ] (सम्यग्दर्शन) सम्यग्दर्शन (बिन) बिना (दुख) दुःख (पाय) प्राप्त किया [और] (तहँत) वहाँ से (चय) मरकर (थावर तन) स्थावर जीव का शरीर (धरै) धारण करता है; (यों) इसप्रकार [यह जीव] (परिवर्तन) पाँच परावर्तन (पूरे करै) पूर्ण करता रहता है। __भावार्थ :- यह जीव वैमानिक देवों में भी उत्पन्न हुआ, किन्तु वहाँ इसने सम्यग्दर्शन के बिना दुःख उठाये और वहाँ से भी मरकर पृथ्वीकायिक आदि स्थावरों के शरीर धारण किये; अर्थात् पुनः तिर्यंचगति में जा गिरा । इसप्रकार यह जीव अनादिकाल से संसार में भटक रहा है और पाँच परावर्तन कर रहा है।॥१७॥ अन्वयार्थ :- [इस जीव ने] (कभी) कभी (अकाम निर्जरा) अकाम निर्जरा (कर) की [तो मरने के पश्चात् (भवनत्रिक) भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी में (सुरतन) देवपर्याय (धरै) धारण की, [परन्तु वहाँ भी] (विषय चाह) पाँच इन्द्रियों के विषयों की इच्छारूपी (दावानल) भयंकर अग्नि में (दह्यो) जलता रहा [और] (मरत) मरते समय (विलाप करत) रो रो कर (दुख) दुःख सहन किया। ___ भावार्थ :- जब कभी इस जीव ने अकाम निर्जरा की, तब मरकर उस निर्जरा के प्रभाव से (भवनत्रिक) भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में से किसी एक का शरीर धारण किया। वहाँ भी अन्य देवों का वैभव देखकर पंचेन्द्रियों के विषयों की इच्छारूपी अग्नि में जलता रहा। फिर मंदारमाला को मुरझाते देखकर तथा शरीर और आभूषणों की कान्ति क्षीण होते देखकर अपना मृत्युकाल निकट है - ऐसा अवधिज्ञान द्वारा जानकर "हाय! अब ये भोग मुझे भोगने को नहीं मिलेंगे।" - ऐसे विचार से रो-रोकर अनेक दुःख सहन किये।।१६।। __ अकाम निर्जरा यह सिद्ध करती है कि कर्म के उदयानुसार ही जीव विकार नहीं करता, किन्तु चाहे जैसा कर्मोदय होने पर भी जीव स्वयं पुरुषार्थ कर सकता है। देवगति में वैमानिक देवों का दुःख जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दुख पाय । तहँतें चय थावर तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै ।।१७।। सार संसार की कोई भी गति सुखदायक नहीं है। निश्चय सम्यग्दर्शन से ही पंच परावर्तनरूप संसार समाप्त होता है। अन्य किसी कारण से - दया, दानादि के शुभराग से संसार नहीं टूटता । संयोग सुख-दुःख का कारण नहीं है, किन्तु मिथ्यात्व (पर के साथ एकत्वबुद्धि - कर्ताबुद्धि, शुभराग से धर्म होता है, शुभराग हितकर है - ऐसी मान्यता) ही दुःख का कारण है। सम्यग्दर्शन सुख का कारण है। __पहली ढाल का सारांश तीन लोक में जो अनंत जीव हैं, वे सब सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं; किन्तु अपना यथार्थ स्वरूप समझें, तभी सुखी हो सकते हैं। चार गतियों के संयोग किसी भी सुख-दुःख का कारण नहीं हैं, तथापि पर में एकत्वबुद्धि द्वारा इष्ट-अनिष्टपना मानकर जीव अकेला दुःखी होता है; और वहाँ भ्रमवश होकर कैसे संयोग के आश्रय से विकार करता है, वह संक्षेप में कहा है। तिर्यंचगति के दुःखों का वर्णन - यह जीव निगोद में अनंतकाल तक रहकर, वहाँ एक श्वास में अठारह बार जन्म धारण करके अकथनीय वेदना १. मिथ्यादृष्टि देव मरकर एकेन्द्रिय होता है, सम्यग्दृष्टि नहीं।

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