Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 38
________________ षड्द्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन] बृहद्र्व्यसंग्रहः । उपयोगः द्विविकल्पः दर्शनं ज्ञानं च दर्शनं चतुर्धा । चक्षुः अचक्षुः अवधिः दर्शनं अथ केवलं ज्ञेयम् ॥ ४॥ व्याख्या-"उवओगो दुवियप्पो" उपयोगो द्विविकल्पः ।"दंसणणाणं च" निर्विकल्पकं दर्शनं सविकल्पकं ज्ञानं च, पुनः “दंसणं चदुधा" दर्शनं चतुर्धा भवति "चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं" चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनमथ अथो केवलदर्शनमिति विज्ञेयम् । तथाहि-आत्मा हि जगत्त्रयकालत्रयवात्तसमस्तवस्तुसामान्यग्राहकसकलविमलकेवलदर्शनस्वभावस्तावत पश्चादनादिकर्मबन्धाधीनः सन् चक्षदर्शनावरणक्षयोपशमादबहिरङ्गन्द्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्तसत्तासामान्य निर्विकल्पं संव्यवहारेण प्रत्यक्षमपि निश्चयेन परोक्षरूपेणैकदेशेन यत्पश्यति तच्चक्षुर्दर्शनम् । तथैव स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमत्वात्स्वकीयस्वकीयबहिरङ्गद्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्त सत्तासामान्यं विकल्परहितं परोक्षरूपेणैकदेशेन यत्पश्यति तदचक्षुर्दर्शनम् । तथैव च मनइन्द्रियावरणक्षयोपशमात्सहकारिकारणभूताष्टदलपद्माकारद्रव्यमनोऽवलम्बनाच्च मूर्त्तामूर्तसमस्तवस्तुगतसत्तासामान्य विकल्परहितं परोक्षरूपेण यत्पश्यति तन्मानसमचक्षुर्दर्शनम् । स एवात्मा यदंवधिदर्शनावरणक्षयोपशमान्मूतवस्तुगतसत्तासामान्यं निर्विकल्परूपेणैकदेशप्रत्यक्षेण यत्पश्यति तदवधिदर्शनम् । यत्पुनः सहजशुद्धसदानन्दैकरूपपरमात्मतत्त्वसंवित्तिप्राप्तिबलेन केवलदर्शनावरणक्षये सति मूर्तामूर्तसमस्तवस्तुगतसत्तासामान्य विकल्परहितं सकलप्रत्यक्षरूपेणैकसमये पश्यति तदुपादेयभूतं क्षायिक केवलदर्शनं ज्ञातव्यमिति ॥४॥ अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन,और केवलदर्शन इन भेदोंसे दर्शनोपयोग चार प्रकारका जानना चाहिये ॥४॥ व्याख्यार्थ-दर्शन और ज्ञान इन भेदोंसे उपयोग दो प्रकारका है। उनमें दर्शन तो निर्विकल्पक है और ज्ञान सविकल्पक है। और दर्शनोपयोग चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन इन भेदोंसे चार प्रकारका होता है, यह जानना चाहिये। इसका विशेष वर्णन इस प्रकार है कि प्रथम तो आत्मा तीनलोक और भूत, भविष्य तथा वर्तमानरूप तीनों कालोंमें रहनेवाले सम्पूर्ण द्रव्यसामान्यको ग्रहण करनेवाला जो पूर्ण निर्मल केवलदर्शन स्वभाव है उसका धारक है, पश्चात् ( फिर ) अनादि कर्मबंधके आधीन होके चक्षुर्दर्शनावरणके क्षयोपशमसे अर्थात् नेत्रद्वारा जो दर्शन होता है. उस दर्शनको रोकनेवाले कर्मके क्षयोपशमसे तथा बहिरंग द्रव्येन्द्रियके आलम्बनसे मूर्त सत्तासामान्यको जो कि संव्यवहारसे प्रत्यक्ष है, तो भी निश्चयसे परोक्षरूप है, उसको एक देशसे विकल्परहित जैसे हो तैसे जो देखता है वह चक्षुर्दर्शन हैं वैसे ही स्पर्शन, रसन, घ्राण, तथा श्रोत्रेन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमसे और निज-निज बहिरंग द्रव्येन्द्रियके आलम्बनसे मूर्त सत्तासामान्यको परोक्षरूप एकदेशसे जो विकल्परहित देखता है, वह अचक्षुर्दर्शन है, और इसी प्रकार मन इन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमसे तथा सहकारी कारणभूत जो आठ पाँखड़ीके कमलके आकार द्रव्यमन है, उसके अवलम्बनसे मूर्त तथा अमूर्त ऐसे समस्त द्रव्योंमें विद्यमान सत्तासामान्यको परोक्षरूपसे विकल्परहित जो देखता है, वह मानस अचक्षुर्दर्शन है, और वही आत्मा जो अवधिदर्शनावरणके क्षयोपशमसे मूर्त्तवस्तुमें प्राप्त सत्तासामान्यको एकदेशप्रत्यक्षसे विकल्परहित देखता है वह अवधिदर्शन है, और जो सहज शुद्ध चिदानन्दरूप एक स्वरूपका धारक परमात्मा है, उसके तत्त्वज्ञानके बलसे केवलदर्शनावरणके क्षय होनेपर मूर्त अमूर्त समस्त वस्तुमें प्राप्त सत्तासामान्यको सकल प्रत्यक्षरूपसे एकसमयमें विकल्परहित जो देखता है, उसको दर्शना For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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