Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 111
________________ ८४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार स्थितिबन्धस्थानानि च । तानि सर्वाणि परमागमकथितानुसारेणानन्तवारान् भ्रमितान्यनेन जीवेन परं किन्तु पूर्वोक्तसमस्तप्रकृतिबन्धादीनां सद्भावविनाशकारणानि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाणि यानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तान्येव न लब्धानि । इति भावसंसारः।। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्वशुद्धात्मसंवित्तिनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किन्तु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंवित्तिबलेन संसारविनाशकनिजनिरञ्जनपरमात्मन्येव भावनां करोति । ततश्च यादृशमेव परमात्मानं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसारविलक्षणे मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति । अयं तु विशेषः-नित्यनिगोदजीवान् विहाय पञ्चप्रकारसंसारव्याख्यानं ज्ञातव्यम् । कस्मादिति चेत्-नित्यनिगोदजीवानां कालत्रयेऽपि त्रसत्वं नास्तीति । तथा चोक्तं----"अस्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्तों तसाण परिणामो। भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं ण मुंचंति । १ ।" अनुपममद्वितीयमनादिमिथ्यादृशोऽपि भरतपुत्रास्त्रयोविंशत्यधिकनवशतपरिमाणास्ते च नित्यनिगोदवासिनः क्षपितकर्माण इन्द्रगोपाः संजातास्तेषां च पुञ्जीभूतानामुपरि भरतहस्तिना पादो दत्तस्ततस्ते मृत्वापि वर्द्धनकुमारादयो आज्ञाके अनुसार इस जीवने अनन्तवार प्राप्त किये हैं, परन्तु पूर्वोक्त संपूर्ण प्रकृतिबंध आदिके सद्भावके नाशके कारण जो विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावका धारक निज परमात्मतत्त्व है उसके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और चारित्ररूप जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, उन्हींको इस जीवने प्राप्त नहीं किये । इस प्रकार भावसंसारका स्वरूप है। इस पूर्वोक्त प्रकारसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप जो पाँच प्रकारका संसार है उसको भावते हुए इस जीवके संसारसे हटानेका कारण जो निजशुद्ध आत्माका ज्ञान है उसका नाश करनेवाले और संसारकी वृद्धिके कारणभूत ऐसे जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं उनमें परिणाम नहीं होता है, किन्तु वह जीव संसारसे अतीत (नहीं होनेवाला) जो सुख है उसके आस्वादमें रत (तत्पर) होकर, निजशुद्ध आत्माके ज्ञानके बलसे संसारको नष्ट करनेवाला जो निज निरंजन परमात्मा है, उसीमें भावना करता है। और इसके पश्चात् जैसे परमात्माको भावता है, वैसे ही परमात्माको प्राप्त होके, संसारसे विलक्षण जो मोक्ष है, उसमें अनन्तकाल निवास करता है। यहाँपर विशेष यह है कि नित्य निगोदके जीवोंको छोड़कर; इस उक्त पंच प्रकारके संसारका व्याख्यान जानना चाहिये, अर्थात् नित्य निगोद जीव इस पंच प्रकारके संसारमें परिभ्रमण नहीं करते हैं। क्योंकि नित्य निगोदवर्ती जो जीव हैं उनके तीन कालमें भी असता अर्थात् वेइन्द्रीपने आदिका धारण करना नहीं है। सो ही कहा है-“ऐसे अनंत जीव हैं कि जिन्होंने त्रस पर्यायको प्राप्त ही नहीं किया। और भाव कलंकों (अशुभपरिणामों) से भरपूर हैं, जिससे वे निगोदके निवासको नहीं छोड़ते है। और यह बात अनुपम और अद्वितीय है कि "अनादिकालसे मिथ्यादृष्टि ऐसे भी नौसौ तेईस (९२३) भरतजीके पुत्र जो कि नित्य निगोदके निवासी थे और नित्य निगोदमें कर्मोंकी निर्जरा होने से वे इन्द्रगोप (सावनकी डोकरी) नामक कोड़े हुए, सो उन सबके ढेरपर भरतके हाथीने पैर रख दिया इससे वे मरकर भरतजीके वर्द्धनकुमार आदि पुत्र हुए और वे किसीके साथ भी न बोलते थे। इस कारण, भरतजीने समवसरणमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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