Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 190
________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः पञ्चत्रिंशत् षोडश षट् पञ्च चत्वारि द्विकं एकं च जपत ध्यायेत । परमेष्ठिवाचकानां अन्यत् च गुरुपदेशेन ॥ ४९ ॥ व्याख्या - " पणतीस " " णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं" एतानि पञ्चत्रिंशदक्षराणि सर्वपदानि भण्यन्ते । "सोल" 'अरिहंत सिद्ध आचार्य उवज्झाय साहू' एतानि षोडशाक्षराणि नामपदानि भव्यन्ते । "छ" 'अरिहन्तसिद्ध' एतानि षडक्षराणि अर्हत्सिद्धयोर्नामपदे द्व े भण्येते । "पण" 'अ सि आ उ सा' एतानि पञ्चाक्षराणि आदिपदानि भव्यन्ते । " चदु" "अरिहंत" इदमक्षरचतुष्टयमर्हतो नामपदम् । "दुग" 'सिद्ध' इत्यक्षरद्वयं सिद्धस्य नामपदम् । "एगं च" 'अ' इत्येकाक्षर महंत आदिपदम् । अथवा 'ओं' एकाक्षरं पञ्चपरमेष्ठिमानादिपदम् । तत्कथमिति चेत् "अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झया मुणिणो । पढमक्खरणिपणो ॐकारो पंच परमेट्ठी । १ ।" इति गाथाकथितप्रथमाक्षराणां 'समानः सवर्णे दीर्घाभवति' 'परश्च लोपम्' 'उवर्णे ओ' इति स्वरसन्धिविधानेन 'ओ' शब्दो निष्पद्यते । कस्मादिति - "जवह ज्झाएह" एतेषां पदानां सर्वमन्त्रवादपदेषु मध्ये सारभूतानां इहलोक परलोकेष्टफलप्रदानामयं ज्ञात्वा पश्चादनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपेण वचनोच्चारणेन च जापं कुरुत । तथैव शुभोपयोग १६३ अब पहले जो कह आये हैं कि "मन्त्रवाक्यों में स्थित है वह पदस्थ ध्यान है" उसी कथनका विस्तार से वर्णन करते हैं; गाथाभावार्थ-पंच परमेष्ठियोंको कहनेवाले जो पैंतीस, सोलह, छः, पाँच, चार, दो और एक अक्षररूप मन्त्रपद हैं उनका जाप करो और ध्यान करो । इनके सिवाय अन्य जो मन्त्रपद हैं। उनको भी गुरु के उपदेशानुसार जपो और ध्यावो ॥ ४९ ॥ Jain Education International व्याख्यार्थ - " पणतीस" ' णमो अरिहंताणं १, णमो सिद्धाणं २, णमो आयरियाणं ३, णमो उवज्झायाणं ४, णमो लोए सव्व साहूणं' ५, ये पैंतीस अक्षर 'सर्वपद' कहलाते हैं । "सोल" 'अरिहंत सिद्ध आचार्य उवज्झाय साहू' ये सोलह अक्षर पंचपरमेष्ठियोंके नाम पद कहलाते हैं । “छ” 'अरिहंत सिद्ध' ये छ: अक्षर अर्हत् तथा सिद्ध इन दो परमेष्ठियोंके दो नाम पद कहे जाते हैं । "पण" 'असिआउसा' ये पांच अक्षर पंच परमेष्ठियोंके आदिपद कहलाते हैं । "चदु" 'अरिहंत' ये चार अक्षर अर्हत् परमेष्ठी के नामपद रूप हैं । "दुग" 'सिद्ध' ये दो अक्षर सिद्ध परमेष्ठी के नामपद रूप हैं । "एगं च " 'अ' यह एक अक्षर अर्हत्परमेष्ठीका आदिपद है; अथवा 'ओ' यह एक अक्षर पाँचों परमेष्ठियों के आदिपदस्वरूप है | 'ॐ' यह परमेष्ठियोंके आदिपद रूप कैसे है ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि अरिहंतका प्रथम अक्षर 'अ', असरीर ( सिद्ध ) का प्रथम अक्षर 'अ', आचार्यका प्रथम अक्षर 'आ', उपाध्यायका प्रथम अक्षर 'उ', मुनिका प्रथम अक्षर 'म्' इस प्रकार इन पाँचों परमेष्ठियोंके प्रथम अक्षरोंसे सिद्ध जो ओंकार है वही पंचपरमेष्ठियों के समान है । इस प्रकार गाथामें कहे हुए जो प्रथम अक्षर ( अ अ आ उम् ) हैं, इनमें पहले 'समानः सवर्णे दीर्घी भवति' इस सूत्र से दीर्घ आ बनाकर 'परश्च लोपम्' इससे पर अक्षरका लोप करके अ अ आ इन तीनोंके स्थान में एक आ सिद्ध किया फिर उवर्णे ओ" इस सूत्र से आउके स्थान में ओ बनाया ऐसे यह शब्द सिद्ध होता है। इस कारण "जवह ज्झाएह " सब मन्त्रशास्त्र के पदोंमें सारभूत और इस लोक तथा परलोक में इष्ट फलको देनेवाले इन पूर्वोक्त पदोंका अर्थ जान कर फिर अनन्तज्ञान आदि गुणोंके स्मरणरूप वचनका उच्चारण करके जाप करो और इसी प्रकार शुभोपयोगरूप जां स्वरसंधि करनेसे 'ओम्' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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