Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 207
________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार स्वसंवेदनज्ञानरूपं भावश्रुतं च । तथैव च हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाणां द्रव्यभावरूपाणां परिहरणं व्रतपञ्चकं चेति । एवमुक्तलक्षणतपः श्रुतव्रतसहितो ध्याता पुरुषो भवति । इयमेव ध्यानसामग्री चेति । तथा चोक्तं- "वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं समचित्तता । परीषहजयश्चेति पञ्चैते ध्यानहेतवः । १ ।” १८० भगवन् ध्यानं तावन्मोक्षमार्गभूतम् । मोक्षार्थिना पुरुषेण पुण्यबन्धकारणत्वाद्वतानि त्याज्यानि भवन्ति भवद्भिः पुनर्ध्यानसामग्रीका रणानि तपःश्रुतव्रतानि व्याख्यातानि तत् कथं घटत इति । तत्रोत्तरं दीयते - व्रतान्येव केवलानि त्याज्यान्येवं न किन्तु पापबन्धकारणानि हिंसादिविकल्परूपाणि यान्यव्रतानि तान्यपि त्याज्यानि । तथा चोक्तं पूज्यपादस्वामिभिः - " अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥ १ ॥" कित्वव्रतानि पूर्वं परित्यज्य ततश्च व्रतेषु तन्निष्ठो भूत्वा निर्विकल्पसमाधिरूपं परमात्मपदं प्राप्य पश्चादेकदेशव्रतान्यपि त्यजति । तदप्युक्तं तैरेव - "अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः । १ ।” शास्त्रोंके आधारसे अर्थात् पठन पाठनसे उत्पन्न हुआ और विकाररहित निज शुद्ध आत्माके जाननेरूप ज्ञानका धारक भावश्रुत है । तथा इसी प्रकार द्रव्य और भावरूप जो हिंसा, अनृत (झूठ), स्तेय (चोरी), अब्रह्म (कुशल), और परिग्रह है इनके त्यागरूप पाँच व्रत हैं । ऐसे कहे हुए लक्षणके धारक जो तप, श्रुत और व्रत हैं इनसे सहित हुआ पुरुष ध्याता (ध्यानकरनेवाला) होता है । और इन तप, श्रुत तथा व्रतरूप ही ध्यानकी सामग्री है। सो ही कहा है कि "वैराग्य १, तत्त्वोंका ज्ञान २, बाह्य अभ्यन्तररूप दोनों परिग्रहोंसे रहितपना ३, राग और द्वेषकी रहिततारूप साम्यभावका होना ४, और बाईस परीषहोंका जीतना ५, ये पाँचों ध्यानके कारण हैं |१| " यहाँ शिष्य शंका करता है कि आचार्य भगवान् ! ध्यान तो मोक्षका मार्गभूत है अर्थात् मोक्षका कारण है और जो मोक्षको चाहनेवाला पुरुष है उसको पुण्यबन्धके कारण होनेसे व्रत त्यागने योग्य हैं अर्थात् व्रतोंसे पुण्यका बंध होता है; और पुण्यबंध संसारका कारण है; इसलिये मोक्षार्थी व्रतोंका त्याग करता है और आपने तप श्रुत और व्रतोंको ध्यानकी पूर्णता के कारण कहे सो यह आपका कथन कैसे घटता ( सिद्ध होता) है ? अब इस शंकाका उत्तर दिया जाता है कि, केवल व्रत हो त्यागने योग्य हैं ऐसा नहीं किंतु पापबंधके कारण जो हिंसा आदि भेदोंके धारक अव्रत हैं वे भी त्यागने योग्य हैं । सो ही श्रीपूज्यपादस्वामीने कहा है कि, “हिंसा आदि अव्रतों से पापका बंध होता है; और अहिंसादि व्रतोंसे पुण्यका बंध होता है; तथा मोक्ष जो है वह पाप व पुण्य इन दोनोंके नाशसे होता है; इस कारण मोक्षको चाहनेवाला पुरुष जैसे अव्रतों का त्याग करता है; वैसे ही अहिंसादिव्रतोंका भी त्याग करे |१| " विशेष यह है कि मोक्षार्थी पुरुष पहले अव्रतोंका त्याग करके पश्चात् व्रतोंका धारक होकर निर्विकल्प - समाधि ( ध्यान ) रूप आत्मा के परम पदको प्राप्त होकर तदनन्तर एकदेशव्रतोंका भी त्याग कर देता है । यह भी उन्हीं श्रीपूज्यपादस्वामीने समाधिशतक में कहा है कि "मोक्षको चाहनेवाला पुरुष अव्रतोंका त्याग करके व्रतों में स्थित होकर आत्माके परम पदको पावे और उस आत्माके परम पदको प्राप्त होकर उन व्रतोंका भो त्याग करे | १|” १. वशचित्तता इत्यपि पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228