Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 213
________________ श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [तृतीय अधिकार कान्तेन द्रव्याथिकनयेनापि स एव मोक्षकारणभूतो ध्यानभावना पर्यायो भण्यते तहि द्रव्यपर्यायरूपधर्मद्वयाधारभूतस्य जीवमिणो मोक्षपर्याये जाते सति यथा ध्यानभावनापर्यायरूपेण विनाशो भवति, तथा ध्येयभूतस्य जीवस्य शुद्धपारिणामिकलक्षणभावद्रव्यरूपेणापि विनाशः प्राप्नोति । न च द्रव्यरूपेण विनाशोऽस्ति। ततः स्थितं शुद्धपारिणामिकभावेन बन्धमोक्षौ न भवत इति । ___ अथात्मशब्दार्थः कथ्यते । अतधातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते। गमनशब्देनात्र ज्ञान भण्यते 'सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था इति वचनात् । तेन कारणेन यथासंभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते । अथवा शुभाशुभमनोवचनकायव्यापारैर्यथासम्भवं तीवमन्दादिरूपेण आसमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा। अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यैरासमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा। किञ्च-यथैकोऽपि चन्द्रमा नानाजलघटेषु दृश्यते तथैकोऽपि जीवो नानाशरीरेषु तिष्ठतीति वदन्ति तत्तु न घटते। कस्मादिति चेत्-चन्द्रकिरणोपाधिवशेन घटस्थजलपुद्गला एव नानाचन्द्राकारेण परिणता, नचैकश्चन्द्रः। तत्र दृष्टान्तमाह-यथा देवदत्तमुखोपाधिवशेन नानादर्पणस्थपुद्गला एव नानामुखाकारेण परिणता, न चैक देवदत्तमुखं नानारूपेण परिणतम् । परिणमतीति चेत्-तहि दर्पणस्थप्रतिबिम्बं चैतन्यं प्राप्नोतीति । न च तथा। किन्तु यद्येक एव मोक्षका कारणभूत जो ध्यानभावनापर्याय है उसमें वही मोक्ष ध्येय होता है । और ध्यान भावनापर्यायरूप ध्येय नहीं है। और यदि एकान्त करके द्रव्याथिकनयसे भी वही मोक्षकारणभूत ध्यानभावना पर्याय कहा जावे तो; द्रव्य और पर्यायरूप दो धर्मोंका आधार जो जीवधर्मी है; उसके मोक्षपर्याय प्रकट होने पर जैसे ध्यानभावनापर्यायरूपसे विनाश होता है। उसी प्रकार ध्येयभूत जो जीव हैं उसका शुद्धपारिणामिकलक्षणभावद्रव्यरूपसे भी विनाश प्राप्त होता है। और द्रव्यरूपसे विनाश है नहीं। इस कारण शुद्धपारिणामिकभावसे जीवके बन्ध और मोक्ष नहीं होता है; यह कथन सिद्ध हो गया। अब आत्मा शब्दका अर्थ कहते हैं। अत धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थमें वर्त्तता है और 'सब गमनरूप अर्थके धारक धातु ज्ञान अर्थके धारक हैं' इस वचनसे यहाँ पर गमन शब्द करके ज्ञान कहा जाता है। इस कारण जो यथासम्भव ज्ञान सुख आदि गुणोंमें पूर्णरूपसे वर्त्तता है वह आत्मा है। अथवा शुभ-अशुभ रूप जो मन वचन कायके व्यापार हैं उनकरके यथासंभव तीव्र मन्द आदि रूपसे जो पूर्ण रूपसे वर्त्तता है वह आत्मा कहलाता है। अथवा उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंकरके जो पूर्णरूपसे वर्तता है उसको आत्मा कहते हैं। और कितने ही ऐसा कहते हैं कि, जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जलके भरे हुए घटोंमें देखा जाता है इसी प्रकार एक ही जीव अनेकशरीरों में रहता है सो यह उनका कथन घटता नहीं। क्यों नहीं घटता ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि जलके घटोंमें चन्द्रमाकी किरणरूप उपाधिके वशसे घटमें विद्यमान जो जलके पुद्गल हैं वे ही अनेक प्रकारके चन्द्रमारूप आकारों में परिणत हए हैं और एक चन्द्रमा जो है वह अनेकरूप नहीं परिणमा है । इस विषयमें दृष्टान्त कहते हैं कि जैसे-देवदत्तके मुखरूप उपाधिके वशसे अनेक दर्पणोंमें स्थित जो पुद्गल हैं वे ही अनेकमुखरूप परिणमते हैं और एक देवदत्तका मुख अनेकरूप नहीं परिणमता है। यदि कहो कि, देवदत्तका मुख ही अनेक मुखरूप परिणमता है तो दर्पण स्थित जो देवदत्तके मुखका प्रतिबिम्ब है वह चेतनाको प्राप्त होवें; परन्तु ऐसा नहीं अर्थात् दर्पणमें जो मुखका प्रतिबिम्ब है वह चेतन नहीं है। और भी विशेष यह है कि यदि अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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