Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 223
________________ १९६ परिशिष्ट २ सादाऽऽउणामगोदाणं पुण्ण तिथयरादी शातावेदनीय, शुभ आयुष्य, शुभ नाम और शुभ गोत्र तथा तीर्थंकरादि पुण्य-प्रकृतियाँ हैं; शेष पाप-प्रकृतियाँ हैं - ऐसा आगममें कहा है । पयडीओ सुहा हवे । अण्णं पावं तु आगमे ॥ १९ ॥ णास णरपज्जाओ उप्पज्जह देवपज्जओ तत्थ । जीवो स एव सव्वस्स भंगुप्पाया धुवा एवं ॥ २० ॥ मनुष्यपर्यायका नाश होता है, देवपर्याय उत्पन्न होता है और जीव वहीका वही रहता है; इस प्रकार सर्वद्रव्यों का उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य होता है । उप्पादपद्धंसा वस्त्थूणं होंति पज्जय-गाएण (णयेण) । Goafer णिच्चा बोधव्वा सव्वजिणवत्ता ॥ २१ ॥ वस्तु उत्पाद और व्यय पर्यायनयसे होता है, द्रव्यदृष्टिसे वस्तु नित्य है ऐसा जानो; श्री सर्वज्ञजिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा है । एवं अहिगयसुत्तो सट्ठाणजुदो मणो णिरंभिता । छंडउ रायं रोसं जइ इच्छइ कम्मणो णास (णासं ) ।। २२ ॥ यदि कर्मोंका नाश करना चाहते हो तो तदनुसार सूत्रके ज्ञाता होकर, स्वयं में स्थित रह कर और मनको रोककर राग और द्वेषको छोड़ो । Jain Education International विसएषु पवट्टतं चित्तं धारेतु अप्पणो झायइ अप्पाणेणं जो सो पावेइ खलु जो आत्मा विषयों में प्रवर्तमान मनको रोककर अपने आत्माका आत्मासे ध्यान करता है वह अवश्य सुखको प्राप्त होता है । अप्पा | सेयं ॥ २३ ॥ सम्मं जीवादीया णच्चा सम्मं सुकित्तिदा जहि । मोहगयकेसरीणं णमो णमो ठाण साहूणं ॥ २४ ॥ जीवादको सम्यक्प्रकारसे जानकर जिन्होंने उस जीवादिका यथार्थ वर्णन किया है, जो मोहरूपी हाथी के लिए केसरी सिंहके समान हैं उन साधुओंको हमारा नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! सोमच्छलेण रइया पत्त्थ - लक्खणकराउ गाहाओ । भवारणिमित्तं गणिणा सिरिणेमिचंदेण ॥ २५ ॥ श्री सोमश्रेष्ठी निमित्त, भव्य जीवोंके उपकारार्थ श्री नेमिचन्द्र आचार्यदेवने पदार्थोंका लक्षण बतानेवाली ये गाथाएँ रची हैं । १२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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