Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 222
________________ १९५ लघुद्रव्यसंग्रह (सार्थ) दव्वपरियट्टजादो जो सो कालो हवेइ ववहारो। लोगागासपएसो एकेक्काणु य परमट्ठो ॥११॥ जो द्रव्योंके परिवर्तनसे उत्पन्न होता है वह व्यवहारकाल है; लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेश पर एकेक कालाणु स्थित है वह परमार्थ ( निश्चय ) काल है। लोयायासपदेसे एक्किक्का जे ठिया हु एक्किका। रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥१२॥ जो लोकाकाशके एकेक प्रदेश पर रत्नराशिकी तरह एकेक कालाणु स्थित है, वह कालाणु असंख्यात द्रव्य है। संखातीदा जीवे धम्माधम्मे अणंत आयासे । ___ संखादासंखादा मुत्ति पदेसाउ संति णो काले ॥ १३ ॥ जीवद्रव्यमें, धर्मद्रव्यमें और अधर्मद्रव्यमें असंख्यात प्रदेश हैं; आकाशद्रव्यमें अनन्त प्रदेश हैं; पुद्गल में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं, कालमें प्रदेश नहीं है अर्थात् कालाणु एक प्रदेशी है। जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउट्टद्धं । तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुढाणदाणरिहं ।। १४ ॥ - जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणुसे रोका जाता है उसको सब परमाणुओंको स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो। जीवो णाणी पुग्गलधम्माधम्मायासा तहेव कालो य । __ अज्जीवा जिणभणिओ ण हु मण्णइ जो हु सो मिच्छो ।। १५ ॥ जीव ज्ञानी है; पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल अजीव है; ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है । जो ऐसा नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है। मिच्छत्तं हिंसाई कसाय-जोगा य आसवो बंधो । सकसाई जं जीवो परिगिण्हइ पोग्गलं विविहं ॥ १६ ॥ मिथ्यात्व, हिंसा आदि ( अव्रत ), कषाय और योगोंसे आस्रव होता है, सकषाय जीव विविध प्रकारके पुद्गलोंको ग्रहण करता है वह बन्ध है । मिच्छत्ताईचाओ संवर जिण भणइ णिज्जरादेसे । कम्माण खओ सो पुण अहिलसिओ अणहिलसिओ य ॥ १७ ॥ श्री जिनेन्द्रदेवने मिथ्यात्व आदिके त्यागको संवर कहा है; कर्मोका एकदेश क्षय निर्जर। है और वह दो प्रकार की है-अभिलाषा सहित ( सकाम ) और अभिलाषारहित ( अकाम ) । कम्म बंधणबद्धस्स सन्भूदस्संतरप्पणो। सव्वकम्म विणिमुक्को मोक्खो होइ जिणेडिदो ॥ १८ ॥ कर्मोके बन्धनसे बद्ध सद्भूत ( प्रशस्त ) अन्तरात्माका जो सर्व कर्मोसे ( सम्पूर्ण ) मुक्त होना वह मोक्ष है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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