Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 192
________________ १६५ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः णट्ठचदुधाइकम्मो दंसणसुहणाणवीरियमईओ ।। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचितिज्जो ।। ५० ।। नष्टचतु_तिकर्मा दर्शनसुखज्ञानवीर्यमयः । शुभदेहस्थः आत्मा शुद्धः अहंन् विचिन्तनीयः ॥ ५० ॥ व्याख्या-"णट्टचदुघाइकम्मो" निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगध्यानेन पूर्व घातिकर्ममुख्यभूतमोहनीयस्य विनाशनात्तदनन्तरं ज्ञानदर्शनावरणान्तरायसंज्ञयुगपद्घातित्रयविनाशकत्वाच्च प्रणष्ट चतुर्घातिकर्मा । "सणसुहणाणवीरियमईओ", तेनैव धातिकाभावेन लब्धानन्तचतुष्टयत्वात् सहजशुद्धाविनश्वरदर्शनज्ञानसुखवीर्यमयः। "सुहदेहत्थो" निश्चयेनाशरीरोऽपि व्यवहारेण सप्तधातुरहितदिवाकरसहस्रभासुरपरमौदारिकशरीरत्वात् शुभदेहस्थः । “सुद्धो" "क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च खेदः स्वेदो मदोऽरतिः । १। विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश स्मृताः। एतैर्दोषविनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः ॥ २॥" इति श्लोकद्वयकथिताष्टादशदोषरहितत्वात् शुद्धः । 'अप्पा" एवं गुणविशिष्ट आत्मा। "अरिहो" अरिशब्दवाच्यमोहनीयस्य, रजःशब्दवाच्यज्ञानदर्शनावरणद्वयस्य, रहस्यशब्दवाच्यान्तरायस्य च हननाद्वि दिखलाता हूँ यह तीसरी पातनिका है। इस प्रकार इन पूर्वोक्त तीनों पातनिकाओंको मनमें धारण करके सिद्धान्ति-चक्रवर्ती भगवान् श्रीनेमिचन्द्रस्वामी इस अग्रिम गाथासूत्रका प्रतिपादन करते हैं; गाथाभावार्थ-चार घातिया कर्मोंको नष्ट करनेवाला, अनंत दर्शन, सुख, ज्ञान और वोर्यका धारक, उत्तम देहमें विराजमान और शुद्ध ऐसा जो आत्मा है वह अरिहंत है उसका ध्यान करना चाहिये ।। ५० ॥ व्याख्यार्थ-"णट्टचदुघाइकम्मो" निश्चयरत्नत्रयस्वरूप जो शुद्धोपयोगरूप ध्यान है उसके द्वारा पहले घातियाकर्मोंमें प्रधान जो मोहनीयकर्म है उसका नाश करनेसे और पीछे ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अंतराय इन नामोंके धारक जो तीन घातिया कर्म हैं उनका एक ही समयमें नाश करनेसे, नष्ट हो गये हैं चार घातिया कर्म जिसके, ऐसा "दसणसुहणाणवीरियमईओ" वह जो घातिया कर्मों का नाश हुआ है उसीसे प्राप्त हुआ जो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंतवीर्य रूप अनंत चतुष्टय है उसका धारक होनेसे स्वभावसे उत्पन्न शुद्ध और विनाशरहित ज्ञान, दर्शन, सुख और वोर्यरूप ऐसा 'सुहदेहत्थो' निश्चयनयसे शरीररहित्त है तो भी व्यवहारनयकी अपेक्षासे सात धातुओंसे रहित-हजारों सूर्योके समान देदीप्यमान-परम औदारिक शरीरको धारण करता है इस कारण शुभदेहमें विराजमान है । "सुद्धो” "क्षुधा १, तृषा २, भय ३, द्वेष ४, राग ५, मोह ६, चिंता ७, जरा ८, रुजा (रोग) ९, मरण १०, स्वेद ११, खेद १२, मद १३, रति १४, विस्मय १५, जन्म १६, निद्रा १७, और विषाद १८, ऐसे ये अठारह दोष हैं; इन दोषों करके रहित ऐसा वह निरंजन आप्त श्रीजिनेन्द्र है । २।" इस प्रकार दो श्लोकोंमें कहे हुए अठारह दोषोंसे रहित होनेके कारण शुद्ध है। "अप्पा" इन पूर्वोक्त गुणोंका धारक जो आत्मा है वह “अरिहो" 'अरि' इस शब्दसे कहे जानेवाले मोहनीयकर्मका, 'रज' इस शब्दसे कहने योग्य ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय इन दोनों कर्मोका तथा 'रहस्य' इसका वाच्य जो अंतरायकर्म है उसका नाश करनेसे इन्द्र आदि देवोंद्वारा रची हुई गर्भावतार-जन्माभिषेक-तपकल्याण-केवलज्ञानोत्पत्ति और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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