Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 200
________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो | सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ।। ५३ ।। यः रत्नत्रययुक्तः नित्यं धर्मोपदेशने निरतः । सः उपाध्यायः आत्मा यतिवरवृषभः नमः तस्मै ॥५३॥ व्याख्या- 'जो रयणत्तयजुत्तो' योऽसौ बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयानुष्ठानेन युक्तः परिणतः । 'णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो' षट्द्रव्यपञ्चास्तिकाय सप्ततत्त्व नवपदार्थेषु मध्ये स्वशुद्धात्मद्रव्यं स्वशुद्ध जीवास्तिकायं स्वशुद्धात्मतत्त्वं स्वशुद्धात्मपदार्थमेवोपादेयं शेषं च हेयं, तथैवोत्तमक्षमादिधर्मं च नित्यमुपदिशति योऽसौ स नित्यं धर्मोपदेशने निरतो भव्यते । 'सो उवज्झाओ अप्पा' स चेत्थंभूत आत्मा उपाध्याय इति । पुनरपि किविशिष्ट:-- 'जदिवरवसहो' पञ्चेन्द्रिय विषयजयेन निजशुद्धात्मनि यत्नपराणां यतिवराणां मध्ये वृषभः प्रधानो यतिवरवृषभः । ' णमो तस्स' तस्मै द्रव्यभावरूपो नमो नमस्कारोऽस्तु । इत्युपाध्यायपरमेष्ठिव्याख्यानरूपेण गाथा गता ॥५३॥ अथ निश्चयरत्नत्रयात्मक निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गसाधकं परमसाधुभक्तिरूपं णमो लोए सव्वसाहूणं' इति पदोच्चारणजपध्यानलक्षणं यत् पदस्थ - ध्यानं तस्य ध्येयभूतं साधुपरमेष्ठिस्वरूपं कथयति - Jain Education International १७३ दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारितं । साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ।। ५४ ।। गाथा भावार्थ - जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रय से सहित है; निरन्तर धर्मका उपदेश देने में तत्पर है; वह आत्मा मुनीश्वरोंमें प्रधान उपाध्याय परमेष्ठी कहलाता है । इसलिये उनको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५३ ॥ व्याख्यार्थ - " जो रयणत्तयजुत्तो" जो बाह्य तथा आभ्यन्तररूप रत्नत्रय के अनुष्ठान ( साधने) युक्त हैं अर्थात् निश्चय - व्यवहार स्वरूप रत्नत्रय के साधने में लगे हुए हैं, “णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो" जीव, अजीवादि छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नौ पदार्थों में निजशुद्ध आत्मद्रव्य, निज शुद्ध जीवास्तिकाय, निज शुद्ध आत्मतत्त्व और निजशुद्ध आत्मपदार्थ ही उपा है; अन्य सब त्यागने योग्य हैं; इस विषयका तथा इसीप्रकार उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोका जो निरन्तर उपदेश देते हैं; वे नित्य धर्मोपदेश देने में तत्पर कहलाते हैं; इस कारण नित्य धर्मोपदेशन में तत्पर ऐसे "अप्पा” आत्मा हैं; वे "जदिवरवसहो" पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंको जीतने से निजशुद्ध आत्मामें प्रयत्न करने में तत्पर ऐसे यतिवरों (मुनीश्वरों) के मध्य में वृषभ अर्थात् प्रधान ऐसे 'उवज्झाओ' उपाध्याय परमेष्ठी हैं; "णमो तस्स" उन उपाध्याय परमेष्ठियोंके अर्थ मेरा द्रव्य तथा भावरूप नमस्कार हो । इस प्रकार उपाध्याय परमेष्ठीके व्याख्यानसे गाथासूत्र पूर्ण हुआ ||५३॥ अब निश्चयरत्नत्रय स्वरूप जो निश्चयध्यान है उसके परंपरासे कारणभूत, बाह्य तथा अभ्यंतररूप मोक्षमार्गके साधनेवाले और परमसाधुभक्तिस्वरूप जो " णमो लोए सव्वसाहूणं” यह पद है इसके बोलने, जाप करने और ध्यान करनेरूप लक्षणका धारक जो पदस्थ ध्यान है। उसके ध्येयभूत ऐसे जो साधु परमेष्ठी हैं उनके स्वरूपका निरूपण करते हैं गाथाभावार्थ- जो दर्शन और ज्ञानसे पूर्ण, मोक्षका मार्गभूत, और सदाशुद्ध ऐसे चारित्रको For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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