Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 198
________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १७१ परमेष्ठिव्याल्यानेन गाथा गता ॥५१॥ अथ निरुपाधिशुद्धात्मभावनानुभूत्यविनाभूतनिश्चयपश्चाचारलक्षणस्य निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं निश्चयव्यवहारपञ्चाचारपरिणताचार्यभक्तिरूपं णमो आयरियाणं' इति पदोच्चारणलक्षणं यत्पदस्थध्यानं तस्य ध्येयभूतमाचार्यपरमेष्ठिनं कथयति; दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे । अप्पं परं च जुजइ सो आयरिओ मुणी झेओ ।। ५२ ।। दर्शनज्ञानप्रधाने वीर्यचारित्रवरतप आचारे । आत्मानं परं च युक्ति सः आचार्यः मुनिः ध्येयः ॥५२॥ व्याख्या-'दंसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे' सम्यग्दर्शनज्ञानप्रधाने वीर्यचारित्रवरतपश्चरणाचारेऽधिकरणभूते 'अप्पं परं च जुंजई' आत्मानं परं शिष्यजनं च योऽसौ योजयति सम्बन्धं करोति 'सो आयरिओ मुणी झेओ' स उक्तलक्षण आचार्यो मुनिस्तपोधनो ध्येयो भवति । तथा हिभूतार्थनयविषयभूतः शुद्धसमयसारशब्दवाच्यो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मादिसमस्तपरद्रव्येभ्यो भिन्नः परमचैतन्यविलासलक्षणः स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यग्दर्शनं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयदर्शनाचारः । तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसम्वेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्यः मनोरथोंरूप अनेक विकल्पोंका समूह उसका त्याग करके और मन, वचन तथा काय इन तीनोंकी गुप्तिस्वरूप जो रूपातीत ध्यान है उसमें स्थित होकर ध्यावो । इस प्रकार निष्कल (शरीररहित) सिद्ध परमेष्ठीके व्याख्यान द्वारा यह गाथा समाप्त हई ।। ५१ ॥ अब उपाधिरहित जो शुद्ध आत्माकी भावना तथा अनुभूति (अनुभव) का साक्षात्कार है उसमें व्याप्तिको धारण करनेवाला जो निश्चय नयानुसार पाँच प्रकारका आचार वही है लक्षण जिसका ऐसा जो निश्चयध्यान उस निश्चयध्यानका परंपरासे कारणभूत, निश्चय तथा व्यवहार इन दोनों प्रकारके पाँच आचारोंमें परिणत (तत्पर वा तल्लीन) ऐसे जो आचार्य परमेष्ठी उनकी भक्तिरूप और "णमो आयरियाणं" इस पदके उच्चारण करने (बोलने) रूप लक्षणका धारक ऐसा जो पदस्थध्यान है उस पदस्थध्यानके ध्येयभूत जो आचार्य परमेष्ठी हैं उनके स्वरूपका निरूपण करते हैं गाथाभावार्थ-दर्शनाचार १. ज्ञानाचार २. वीर्याचार ३. चारित्राचार ४. और तप३चरणाचार ५, इन पांचों आचारोंमें जो आप भी तत्पर होते हैं और अन्यशिष्योंको भी लगाते हैं ऐसे आचार्य मुनि ध्यान करने योग्य हैं ।। ५२॥ ____ व्याख्यार्थ-"दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे" आधारभूत सम्यग्दर्शनाचार और सम्यग्ज्ञानाचार है प्रधान जिसमें ऐसे वीर्याचार चारित्राचार और तपश्चरणाचारमें "अप्पं परं च जुंजइ" अपनी आत्माको और अन्य शिष्यजनोंको जो लगाते हैं "सो आयरिओ मुणी झेओ" वे पूर्वोक्त लक्षणवाले आचार्य तपोधन ध्यान करने योग्य होते हैं। उसीका विस्तारसे वर्णन करते हैं कि, भूतार्थ (निश्चय) नयका विषयभूत, 'शुद्धसमयसार' इस शब्दसे कहने योग्य, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म आदि जो समस्त पर पदार्थ हैं उनसे भिन्न; और परमचैतन्यका विलासरूप लक्षणका धारक ऐसा जो निज शुद्ध आत्मा है वही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है इस प्रकारकी रुचि होने रूप सम्यग्दर्शन है; उस सम्यग्दर्शनमें जो आचरण अर्थात् परिणमन करना है उसको निश्चय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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