Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 189
________________ १६२ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार प्रच्छादकचारित्रमोहो रागद्वेषौ भण्येते । चारित्रमोहो रागद्वेषौ कथं भण्येते ? इति चेत्-- कषायमध्ये क्रोधमानद्वयं द्वेषाङ्गं, मायालोभद्वयं रागाङ्गः, नोकषायमध्ये तु स्त्रीपुंनपुंसकवेदत्रयं हास्यरतिद्वयं च रागाङ्ग, अरतिशोकद्वयं भयजुगुप्साद्वयं च द्वेषाङ्गमिति ज्ञातव्यम् । अत्राह शिष्यःरागद्वेषादयः किं कर्मजनिताः किं जीवजनिता इति । तत्रोत्तरं - स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति । पश्चान्नयविवक्षावशेन विवक्षितैकदेशशुद्ध निश्चयेन कर्मजनिता भण्यन्ते । तथैवाशुद्ध निश्चयेन जीवजनिता इति । स चाशुद्धनिश्चयः शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव । अथ मतं - साक्षाच्छुद्ध निश्चयनयेन कस्यैत इति पृच्छामो वयम् । तत्रोत्तरं - साक्षाच्छुद्ध निश्चयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव सुधाहरिद्रासंयोगरहितरङ्गविशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं प्रयच्छाम इति ॥ ४८ ॥ एवं ध्यातृव्याख्यान मुख्यत्वेन तद्वयानेन विचित्रध्यानकथनेन च सूत्रं गतम् ॥ अत ऊध्वं पदस्थं ध्यानं मन्त्रवाक्यस्थं यदुक्तं तस्य विवरणं कथयति; -- पणतीस सोलछप्पणच दुदुगमेगं च जवह ज्झाएह | परमेट्ठिवाचयाणं अण्ण च गुरुवसे ।। ४९ ।। उसको ढकनेवाला जो चारित्रमोह है वह राग और द्वेष कहलाता है । चारित्रमोह रागद्वेषरूप कैसे कहलाता है ? ऐसा प्रश्न करो तो उत्तर यह है कि कषायों के बीचमें क्रोध और मान ये जो दो कषाय हैं सो तो द्वेष अंग हैं और माया तथा लोभ ये दोनों कषाय रागके अंग हैं । और नोकषायोंमें स्त्रीवेद, पुंवेद, और नपुंसक वेद ऐसे तीनों वेद तथा हास्य और रति ये दोनों ऐसे पाँच नोकषाय तो रागके अंग हैं; और अरति तथा शोक ये दोनों और भय तथा जुगुप्सा (ग्लानि) ये दोनों ऐसे चार नोकषाय द्वेषके अंग जानने योग्य हैं । यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता है कि, राग, द्वेष आदि क्या कर्मोंसे उत्पन्न हुए हैं अथवा क्या जीवसे उत्पन्न हुए हैं ? इसका उत्तर यह है कि, स्त्री और पुरुष इन दोनोंके संयोग से उत्पन्न हुए पुत्रके समान और कलई ( चूना) तथा हलदी इन दोनोंके मेलसे उत्पन्न हुए एक प्रकारके रंगकी तरह ये राग द्वेष आदि कषाय जीव और कर्म इन दोनोंके संयोग से उत्पन्न हुए हैं । और जब नयकी विवक्षाके वश इनका कथन किया जाता है तब विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनयसे तो ये कषाय कर्मसे उत्पन्न हुए कहलाते हैं । और इसी प्रकार अशुद्धनिश्चयनयसे जीवजनित कहलाते हैं । और यह अशुद्धनिश्चयनय, शुद्ध - निश्चयनयकी अपेक्षासे व्यवहारनय ही है । शंका - साक्षात् शुद्ध निश्चयनयसे ये राग द्वेष किसके हैं यह हम पूछते हैं ? समाधान- तुम्हारे प्रश्नका उत्तर यह है कि साक्षात् शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षासे जैसे, स्त्री और पुरुषके संयोगविना पुत्रकी उत्पत्ति नहीं होती और कलई व हलदीके संयोगविना एक प्रकारका रंग उत्पन्न नहीं होता इसी प्रकार जीव तथा कर्म इन दोनोंके संयोगके विना इन राग द्वेषादिकी उत्पत्ति ही नहीं होती है । इसलिये हम तुम्हारे प्रश्नका उत्तर ही कैसे देवें अर्थात् जैसे पुत्र न स्त्रीसे ही होता है और न पुरुषसे ही होता है किंतु स्त्री तथा पुरुष इन दोनोंके संयोगसे उत्पन्न होता है; इसी प्रकार राग द्वेष आदि न कर्मजनित ही हैं और न जीवजनित ही हैं किन्तु जीव और कर्म इन दोनोंके संयोगजनित हैं ।। ४८ ।। इस प्रकार ध्याता ( ध्यान करनेवाले ) के व्याख्यानकी प्रधानतासे उस ध्याताके ध्यान तथा विचित्र ध्यानके कथनसे यह गाथासूत्र समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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