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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
क्रोशवधयाच नालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानादर्शनानीति विज्ञेयाः । तेषां क्षुधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि सुखदुःखजीवितमरणलाभालाभनिन्दाप्रशंसादिसमतारूपपरमसामायिकेन नवतर शुभाशुभकर्म संवरण चिरन्तनशुभाशुभकर्मनिर्जरणसमर्थेनायं निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानन्दलक्षणसुखामृतसंवित्ते रचलनं स परीषहजय इति ॥
[ द्वितीय अधिकार
द्वाविंशतिपरीषहा
अथ चारित्रं कथयति । शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चय रत्नत्रयपरिणते स्वशुद्धात्मस्वरूपे चरणमवस्थानं चारित्रम् । तच्च तारतम्यभेदेन पञ्चविधम् । तथाहि — सर्वे जीवाः केवलज्ञानमया इति भावनारूपेण समतालक्षणं सामायिकम्, अथवा परमस्वास्थ्यबलेन युगपत्समस्तशुभाशुभसङ्कल्पविकल्पत्यागरूपसमाधिलक्षणं वा, निर्विकारस्वसंवित्तिबलेन रागद्वेषपरिहाररूपं वा स्वशुद्धात्मानुभूतिबलेनार्त्त रौद्र परित्यागरूपं वा समस्तसुखदुःखादिमध्यस्थरूपं चेति । अथ छेदोपस्थापनं कथयति - यदा युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामायिके स्थातुमशक्तोऽयं जीवस्तदा समस्तहिंसा नृतस्ते या ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतमित्यनेन पञ्चप्रकारविकल्पभेदेन व्रतच्छेदेन रागादिविकल्परूपसावद्येभ्यो निवर्त्य निजशुद्धात्मन्यात्मानमुपस्थापयतीति छेदोपस्थापनम् । अथवा छेदे व्रतखण्डे सति निविकारसंवित्तिरूपनिश्चयप्रायश्चित्तेन तत्साधकबहिरङ्गव्यवहारप्रायश्चित्तेन वा स्वात्मन्यु
१०, शय्या ११, आक्रोश ( कटु वचन ) १२, वध ( मारण) १३, याचना १४, अलाभ १५, रोग १६, तृणस्पर्श १७, मल १८, सत्कारपुरस्कार १९, प्रज्ञा २०, अज्ञान २१, और अदर्शन २२, ये बाईस परीषह जानने चाहिये । इन क्षुधा तृषा आदि वेदनाओंके तीव्र उदय होनेपर भी सुख, दुःख, जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, निंदा, प्रशंसा आदिमें समानतारूप जो नवीन शुभ तथा अशुभ कर्मोंको रोकने में और पुराने शुभ अशुभ कर्माके निर्जरण करने में समर्थ ऐसा परम सामायिक है उस करके निज परमात्माको भावनासे उत्पन्न विकाररहित नित्यानंदरूप लक्षणका धारक जो सुखामृत हैं उसके ज्ञानसे जो नहीं चलना सो परीषहजय है |
अब चारित्रका निरूपण करते हैं । शुद्ध उपयोगस्वरूप जो निश्चय रत्नत्रय उसमें परिणत जो आत्मरूप उसमें जो चरण कहिये स्थित होना सो चारित्र है । वह तारतम्य भेदसे पाँच प्रकारका है । सो ही दिखाते हैं-सब जीव केवल ज्ञानमय हैं ऐसी भावनारूपसे जो समता लक्षण परिणामका करना सो सामायिक हैं । अथवा परम स्वास्थ्य के बलसे एक ही समय में संपूर्ण शुभ और अशुभ संकल्प विकल्पोंका त्यागरूप जो समाधि ( ध्यान ) है वह है लक्षण जिसका सो सामायिक है । अथवा विकाररहित आत्मज्ञानके बलसे जो राग और द्वेषका परिहार ( त्याग ) है उसरूप सामायिक है । अथवा शुद्ध आत्मा के अनुभवके बलसे आर्त्त तथा रौद्र ध्यानका त्याग करने स्वरूप सामायिक है । अथवा समस्त सुख तथा दुःखोंमें जो मध्यस्थ रहना तद्रूप सामायिक है || अब छेदोपस्थापन नामक चारित्रके द्वितीय भेदका वर्णन करते हैं-जब एक ही समय में संपूर्ण विकल्पोंके त्यागरूप परम सामायिक में स्थित होनेको यह जीव असमर्थ होता है तब " समस्तहिंसा, अनृत ( असत्य ), स्तेय ( चोरी ), अब्रह्म तथा परिग्रह इन पाँचोंसे जो विरति ( रहितता) सो व्रत है" इस कथन के अनुसार विकल्प भेदसे पाँच प्रकारके व्रतोंका छेदन होनेपर जो राग आदि विकल्परूप सावद्योंसे जीवको छुड़ाकर निजशुद्ध आत्मामें उपस्थापन करे सो छेदोपस्थापन है । अथवा छेद अर्थात् व्रतका खंड ( भंग वा नाश ) होनेपर निर्विकार निज आत्माके ज्ञानरूप निश्चयप्रायश्चित्तके बलसे अथवा व्यवहारप्रायश्चित्तसे जो निज आत्मामें स्थितिका होना सो
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