Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 142
________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ११५ सदसहस्सा। १।" इति गाथाकथितचतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये परमस्वास्थ्यभावनोत्पन्ननिाकुलपारमार्थिकसुखविलक्षणानि पञ्चेन्द्रियसुखाभिलाषजनितव्याकुलत्वोत्पादकानि दुःखानि सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा राजाधिराजार्द्धमाण्डलिकमहामाण्डलि कबलदेववासुदेवकामदेवसकलचक्रवत्तिदेवेन्द्रगणधरदेवतीर्थङ्करपरमदेव प्रथमकल्याणत्रयपर्यन्तं विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमहत्पदं सिद्धपदं च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिन्तामणिरिति। कि बहुना ये जिनेश्वरप्रणीतं धर्म प्राप्य दृढमतयो जातास्त एव धन्याः। तथा चोक्तम्- "धन्या ये प्रतिबुद्धा धर्मे खलु जिनवरैः समुपदिष्टे । ये प्रतिपन्ना धर्म स्वभावनोपस्थितमनीषाः ।१।" इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ इत्युक्तलक्षणा अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मतत्त्वानुचिन्तनसंज्ञा निरास्रवशुद्धात्मतत्त्वपरिणतिरूपस्य संवरस्य कारणभूता द्वादशानुप्रेक्षाः समाप्ताः ॥ अथ परोषहजयः कथ्यते-क्षुत्पिपासाशोतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्या तेइंद्री और चौइंद्री इनमें दो दो लाख, देव, नारकी और तियंच इन तीनोंमें चार चार लाख तथा मनुष्योंमें चौदह लाख योनि हैं । १ ।" इस गाथामें कही हुई चौरासी लाख योनियोंमें परम स्वास्थ्यकी भावनासे उत्पन्न, व्याकुलतारहित ऐसे पारमार्थिक सुखसे विलक्षण ( भिन्न ) और पांचों इन्द्रियोंके सुखोंकी अभिलाषा ( वांछा ) से उत्पन्न, व्याकुलताको पैदा करनेवाले ऐसे जो दुःख हैं उनको सहते हुए इस जीवने परिभ्रमण किया। जब इस जीवको पूर्वोक्त प्रकारके धर्मकी प्राप्ति होती हैं तब राजाधिराज, महाराज, अर्धमंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, बलदेव, नारायण, कामदेव, चक्रवर्ती, देव, इंद्र, गणधर देव, तीर्थंकर परमदेवके पदों तथा तीर्थंकरोंके गर्भ, जन्म तथा तप कल्याणकों पर्यन्तके जो अनेक प्रकारके अभ्युदय सुख हैं उन सुखोंको प्राप्त होकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रयको भावनाके बलसे अक्षय और अनंत गुणोंका स्थान जो अरहंत पद है उसको और सिद्ध पदको प्राप्त होता है। इसकारण धर्म ही परम रसका रसायन है, धर्म ही निधियोंका निधान ( भंडार ) है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, धर्म ही कामधेनु गाय है और धर्म ही चिंतामणि रत्न है । विशेष क्या कहें जो जिनेश्वरके कहे हुए धर्मको प्राप्त होकर, दृढ़ बुद्धिके धारक ( सम्यग्दृष्टि ) हुए हैं वे ही धन्य हैं । सो ही कहा है-“जिन्होंने जिनवरसे उपदिष्ट धर्मको जाना है और आत्मज्ञानमें तत्पर बुद्धिके धारक जिन्होंने उस धर्मको ग्रहण किया है वे सब धन्य हैं । १।" इसप्रकार संक्षेपसे धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ इसप्रकार पूर्वोक्त लक्षणकी धारक अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, और धर्मतत्त्व इनका अनुचिंतन ( विचार ) रूप है नाम जिनका ऐसी और आस्रवरहित-शुद्ध आत्मतत्त्वकी परिणतिरूप जो संवर है उसकी कारणरूप ऐसी बारह अनुप्रेक्षा ( भावना ) समाप्त हुई । अब परीषहोंका जय ( जीतना ) जो है उसका कथन करते हैं-क्षुधा १, प्यास २, शीत ३, उष्ण ( गर्मी) ४, दश मशक ५, नग्नता ६, अरति ७, स्त्री 4 चर्या ( गमन) ९, निषद्या ( बस्ती ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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