Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 170
________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ग्रहणं विभ्रमः । तत्र दृष्टान्तः - शुक्तिकायां रजतविज्ञानवत् । इत्युक्तलक्षण संशयविमोहविमैर्वजितं "अप्प पर सरूवस्स गहणं" सहजशद्ध केवलज्ञानदर्शनस्वभाव स्वात्मरूपस्य ग्रहणं परिच्छेदनं परिच्छित्तिस्तथा परद्रव्यस्य च भावकर्मद्रव्यकर्मनो कर्मरूपस्य जीवसम्बन्धिनस्तथैव पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपस्य परकीयजीवरूपस्य च परिच्छेदनं यत्तत् "सम्मण्णाणं" सम्यग्ज्ञानं भवति । तच्च कथंभूतं, "साया" घटोऽयं पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकारं सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्मकमित्यर्थः । पुनश्च किविशिष्टं " अणेयभेयं तु" अनेकभेदं तु पुनरिति ॥ १४३ तस्य भेदाः कथ्यन्ते । मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलज्ञानभेदेन पञ्चधा । अथवा श्रुतज्ञानापेक्षया द्वादशाङ्गमङ्गमङ्गबाह्यं चेति द्विभेदम् । द्वादशाङ्गानां नामानि कथ्यन्ते । आचार, सूत्रकृतं, स्थानं, समवायनामधेयं, व्याख्याप्रज्ञप्तिः, ज्ञातृकथा, उपासकाध्ययनं, अन्तकृतदर्श, अनुत्तरोपपादिकदर्श, प्रश्नव्याकरणं, विपाकसूत्रं दृष्टिवादश्चेति । दृष्टिवादस्य च परिकर्मसूत्रप्रथमानुयोगपूर्वगतचूलिकाभेदेन पञ्च भेदाः कथ्यन्ते । तत्र चन्द्रसूर्यजम्बूद्वीप सागरव्याख्याप्रज्ञप्तिभेदेन परिकर्म पञ्चविधं भवति । सूत्रमेकभेदमेव । प्रथमानुयोगोऽप्येकभेदः । पूर्वगतं पुनरुत्पादपूर्व, अग्रायणीयं, वीर्यानुप्रवादं अस्तिनास्तिप्रवादं ज्ञानप्रवादं, सत्यप्रवादं, आत्मप्रवादं कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानं, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेयं, प्राणानुवादं, क्रियाविशालं, लोकसंज्ञं, पूर्वं चेति चतुर्दशभेदम् । जलगतस्थलगताकाशगतह र मेखलादिमायास्वरूपशाकिन्यादिरूपपरावर्त्तनभेदेन चूलिका पञ्चविधा है । इन पूर्वोक्त लक्षणोंके धारक संशय, विमोह और विभ्रमसे रहित जो "अप्पपरसरूवस्स गहणं" सहजशुद्ध केवलज्ञान तथा केवलदर्शन - स्वभावके धारक निज आत्माके स्वरूपका जो जानना और जीवके संबंधी ऐसे भावकर्म, द्रव्यकर्म, व नोकर्मस्वरूप परद्रव्यका तथा पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंके स्वरूप और परजीवके स्वरूपका जो जानना है सो "सम्मण्णाणं" सम्यक्ज्ञान है । वह कैसा है कि "सायारं" यह घट है, यह वस्त्र है इत्यादि ग्रहणव्यापाररूपसे साकार ( सविकल्प व्यवसायात्मक - निश्चयात्मक ) है ऐसा अर्थ है । और फिर कैसा है कि "अयभेयं तु " अनेक भेदोंका धारक है । अब उस सम्यक् ज्ञानके भेद कहे जाते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन भेदोंसे वह सम्यग्ज्ञान पाँच प्रकारका है । अथवा श्रुतज्ञानकी अपेक्षाको लेकर ज्ञानके भेद करते हैं तो द्वादशाङ्गरूप अंग और अंगबाह्य इन भेदोंसे दो प्रकारका है । उनमें द्वादश अंगों के नाम कहते हैं । आचाराङ्ग १, सूत्रकृताङ्ग २, स्थानाङ्ग ३, समवायांग ४, व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग ५, ज्ञातृकथांग ६, उपासकाध्ययनांग ७, अन्तकृद्दशांग ८, अनुत्तरोपपादिकदशांग ९, प्रश्नव्याकरणांग १०, विपाकसूत्रांग ११, और दृष्टिवाद १२, ये द्वादश अंगोंके नाम हैं । अब दृष्टिवादनामक बारहवें अंगके परिकर्म १ सूत्र २, प्रथमानुयोग ३, पूर्वगत ४ तथा चूलिका ५, इन भेदोंसे जो पाँच भेद हैं उनका वर्णन करते हैं । उनमें चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, सागर प्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति इन भेदोंसे प्रथम भेद जो परिकर्म है वह पाँच प्रकारका है। सूत्र एक ही प्रकारका है । प्रथमानुयोग भी एक ही प्रकारका है । और जो चौथा पूर्वगत है वह उत्पादपूर्व १, अग्रायणीयपूर्व २, वीर्यानुप्रवादपूर्व ३, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व ४, ज्ञानप्रवादपूर्वं ५, सत्यप्रवादपूर्वं ६, आत्मवादपूर्व ७, कर्मप्रवादपूर्व ८, प्रत्याख्यानपूर्व ९, विद्यानुवादपूर्व १०, कल्याणपूर्व ११, प्राणानुवादपूर्व १२ क्रियाविशापूर्व १३, और लोकसारपूर्व १४, इन भेदोंसे चौदह प्रकारका है । चूलिका १, स्थलगत चूलिका २, आकाशगत चूलिका ३, हरमेखलाआदि मायास्वरूप चूलिका ४, जलगत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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