Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ १४२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार महद्धिकदेवेष्वेव । “शेषेषु देवतिर्यक्षु षट्स्वधः श्वभ्रभूमिषु। द्वौ वेदकोपशमको स्यातां पर्याप्तदेहिनाम् । १।" इति निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गावयविनः प्रथमावयवभूतस्य सम्यक्त्वस्य व्याख्यानेन गाथा गता ॥४१॥ अथ रत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गद्वितीयावयवरूपस्य सम्यग्ज्ञानस्य स्वरूपं प्रतिपादयति; संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स । गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेय भेयं तु ॥४२ ॥ संशयविमोहविभ्रमविजितं आत्मपरस्वरूपस्य । ग्रहणं सम्यग्ज्ञानं साकारं अनेकभेदं च ॥ ४२ ॥ व्याख्या- "संसयविमोहविन्भमविवज्जियं" संशयः शुद्धात्मतत्त्वादिप्रतिपादकमागमज्ञानं कि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतं भविष्यति परसमयप्रणीतं वेति ? संशयः। तत्र दष्टान्तः-स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । विमोहः परस्परसापेक्षनयद्वयेन द्रव्यगुणपर्यायादिपरिज्ञानाभावो विमोहः। तत्र दृष्टान्तः-गच्छत्तृणस्पर्शवद्दिग्मोहवद्वा। विभ्रमोऽनेकान्तात्मकवस्तुनो नित्यक्षणिकैकान्तादिरूपेण और तिर्यचोंमें तथा रत्नप्रभानामक प्रथम नरक पृथ्वीमें जीवोंके उपशम, वेदक और क्षायिक ये तीनों सम्यक्त्व होते हैं ॥ १॥" और जिसने आयुको बांध लिया है अथवा प्राप्त कर लिया है ऐसे कर्मभूमिके मनुष्यमें तीनों ही सम्यक्त्व होते हैं। परन्तु विशेष यह है कि अपर्याप्त-अवस्थामें औपशमिक सम्यक्त्व महद्धिक देवोंमें ही होता है और "जो शेष ( बचे हुए ) देव-तिर्यञ्च हैं उनमें छह नीचेकी नरकभूमियोंमें पर्याप्तजीवोंके वेदक और उपशम ये दो सम्यक्त्व होते हैं ॥ १॥" इस प्रकार निश्चय तथा व्यवहाररूप जो रत्नत्रय स्वरूप अवयवी है उसका प्रथम अवयवभूत जो सम्यग्दर्शन है उसके व्याख्यानसे गाथा समाप्त हुई ॥ ४१ ॥ ___ अब रत्नत्रय रूप जो मोक्षमार्ग है उसके द्वितीय अवयव रूप सम्यग् ज्ञानके स्वरूपका कथन करते हैं गाथाभावार्थ-आत्मस्वरूप और परपदार्थके स्वरूपका जो संशय, विमोह (अनध्यवसाय) . और विभ्रम (विपर्यय ) रूप कुज्ञानसे रहित जानना है वह सम्यग् ज्ञान कहलाता है यह आकार ( विकल्प ) सहित है और अनेक भेदोंका धारक हैं ॥ ४२ ॥ व्याख्यार्थ- "संसयविमोहविन्भमनिवज्जियं" शुद्ध आत्मतत्त्व आदिका प्रतिपादन करनेवाला जो शास्त्रका ज्ञान है वह क्या वीतरागसर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है ? अथवा अन्यमतियों द्वारा निरूपण किया हुआ सत्य है ? इसप्रकार जो विचार करना हैं वह संशय है । इसमें दृष्टान्त ऐसा कि 'क्या यह अंधकारमें स्थित पदार्थ स्थाणु ( वृक्षका दूँठ ) है अथवा कोई मनुष्य खड़ा हा है' इस प्रकार विचारना संशय है। गमन करते हुए पुरुषके जैसे चरणोंमें तृण ( घास ) आदिका स्पर्श होता है और उसको मालम नहीं होता कि क्या लगा वा जैसे दिशाका भूल जाना होता है उसीप्रकार एक दूसरेकी आपसमें अपेक्षाके धारक जो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकस्वरूप दो नय हैं उनके अनुसार जो द्रव्य, गुण तथा पर्याय आदिका नहीं जानना है उसको विमोह कहते हैं । जैसे किरीको सीपमें चाँदीका और चाँदीमें सीपका ज्ञान हो जाय; इसीप्रकार जो अनेकान्तरूप वस्तु है उसको यह नित्य ही है, यह अनित्य ही है ऐसे जो एकान्तरूप जानना है वह विभ्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228