Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 153
________________ १२६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार दानसन्मानादिकं करोति तथा सम्यग्दृष्टिरप्युपादेयरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति चारित्रमोहोदयात्तत्रासमर्थः सन् निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणामर्हत्सिद्धानां तदाराधकाचार्योपाध्यायसाधूनां च परमात्मपदप्राप्त्यर्थं विषयकषायवञ्चनार्थं च दानपूजादिना गुणस्तवनादिना वा परमभक्ति करोति तेन भोगाकाङ्क्षादिनिदानरहितपरिणामेन कुटुम्बिना पलालमिव अनीहितवृत्त्या विशिष्टपुण्यमास्रवति तेन च स्वर्गे देवेन्द्रलोकान्तिकादिविभूति प्राप्य विमानपरीवारादिसंपदं जीर्णतृणमिव गणयन् पञ्चमहाविदेहेषु गत्वा पश्यति । किं पश्यतीति चेत्-तदिदं समवसरणं, त एते वीतरागसर्वज्ञाः, त एते भेदाभेदरत्नत्रयाराधका गणधरदेवादयो ये पूर्व श्रूयन्ते त इदानी प्रत्यक्षेण दृष्टा इति मत्वा विशेषेण दृढधर्ममतिर्भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यामात्मनो विरतावस्थामपरित्यजन् भोगानुभवेऽपि सति धर्मध्यानेन कालं नीत्वा स्वर्गादागत्य तीर्थकरादिपदे प्राप्तेऽपि पूर्वभवभावितविशिष्टभेदज्ञानवासनाबलेन मोहं न करोति ततो जिनदीक्षां गृहीत्वा पुण्यपापरहितनिजपरमात्मध्यानेन मोक्षं गच्छतीति। मिथ्यादृष्टिस्तु तीव्रनिदानबन्धपुण्येन भोगं प्राप्य पश्चादर्द्धचक्रवत्ति हैं फिर वह पुण्य कसे करता है ? अब इस शंकाके समाधानमें युक्तिका कथन करते हैं। जैसे कोई मनुष्य अन्य देशमें विद्यमान ऐसी मनोहर (रूप लावण्यादिको धारक) स्त्रीके पाससे आये हुए मनुष्योंका उस स्त्रीकी प्राप्तिके अर्थ दान, सन्मान आदि करता है; ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव भी निजशुद्ध आत्माको ही भावता है। परंतु जब चारित्रमोहके उदयसे उस निज शुद्ध आत्माकी भावनामें असमर्थ होता है; तब दोषरहित परमात्मा स्वरूप जो अर्हत् सिद्ध हैं तथा उनके आराधक जो आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं उनकी परमात्मारूपपदकी प्राप्तिके निमित्त और विषय तथा कषायोंको दूर करनेके लिये दान पूजा आदिसे अथवा गुणोंकी स्तुति आदिसे परम भक्तिको करता है । और भोगोंकी वांछा आदि निदानोंसे रहित जो परिणाम है उससे कुटुंबियोंके पलालके समान निरिच्छकपनेसे विशिष्ट पुण्यका आस्रव करता है, अर्थात् जैसे किसान जब चावलोंकी खेती करता है; तब उसका मुख्य उद्देश चावल उत्पन्न करनेका रहता है और चावलोंका जो पलाल (घास) है उसमें उसकी वांछा नहीं रहती है, तथापि उसको बहत्तसा पलाल मिल ही जाता है। इसी प्रकार मोक्षको चाहनेवाले जीवोंके वांछा विना भी भक्ति करनेसे पुण्यका आस्रव होता है। और उस पुण्यसे स्वर्गमें इन्द्र, लोकान्तिक देव आदिकी विभूतिको प्राप्त होकर स्वर्गसंबंधी जो विमान तथा देव देवियोंका परिवार है उसको जीर्ण तृणके समान गिनता हुआ पञ्च महाविदेहोंमें जाकर देखता है। क्या देखता है ? ऐसा प्रश्न करो तो उत्तर यह है कि, वह यह समवसरण है, वे ये श्रीवीतराग सर्वज्ञ भगवान् हैं, वे ये भेद तथा अभेदरूप रत्नत्रयकी आराधना करनेवाले गणधर देव आदि हैं, जो कि पहले सुने जाते थे, वे आज प्रत्यक्षमें देखे ऐसा मानकर अधिकतासे धर्ममें दृढ बुद्धिको करके चतुर्थ गुणस्थानके योग्य जो अपनी अविरत अवस्था है उसको नहीं छोड़ता हुआ भोगोंका सेवन होनेपर भी धर्मध्यानसे देव आयुके कालको पूर्णकर स्वर्गसे आकर तीर्थकर आदि पदको प्राप्त होता है और तीर्थकर आदि पदको प्राप्त होने पर भी पूर्वजन्ममें भावित की हुई जो विशिष्ट-भेदज्ञानकी वासना है उसके बलसे मोहको नहीं करता है और मोहरहित होनेसे श्रीजिनेन्द्रकी दीक्षाको धारण कर पुण्य तथा पापसे रहित जो निजपरमात्माका ध्यान है उसके द्वारा मोक्षको जाता हैं। और जो मिथ्यादृष्टि है वह तो तीव्र निदानबंधके पुण्यसे चक्रवर्ती, नारायण तथा रावण आदि प्रतिनारायणोंके समान भोगोंको प्राप्त होकर नरकको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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