Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 156
________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणैकाग्र्यपरिणतिरूपो निश्चयमोक्षमार्गः । अथवा धातुपाषाणेऽग्निवत्साधको व्यवहारमोक्षमार्गः, सुवर्णस्थानीय निर्विकारस्वोपलब्धिसाध्यरूपो निश्चय मोक्षमार्गः । एवं संक्षेपेण व्यवहार निश्चयमोक्षमार्गलक्षणं ज्ञातव्यमिति ॥ ३९ ॥ १२९ अथाभेदेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि स्वशुद्धात्मैव तेन कारणेन निश्चयेनात्मैव निश्चयमोक्षमार्ग इत्याख्याति । अथवा पूर्वोक्तमेव निश्चयमोक्षमार्ग प्रकारान्तरेण दृढयति; - रयणत्तयं ण वट्ट अप्पाणं मुत्तु अण्णदवियम्हि | तम्हा तनियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा ।। ४० ।। रत्नत्रयं न वर्त्तते आत्मानं मुक्त्वा तस्मात् तत्त्रिकमयः भवति खलु मोक्षस्य कारणं आत्मा ॥ ४० ॥ व्याख्या - " रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुद्दत्तु अण्णदवियम्हि" रत्नत्रयं न वर्त्तते स्वकी - यशुद्धात्मानं मुक्त्वा अन्याचेतने द्रव्ये । " तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा" तस्मात्तत्त्रितयमय आत्मैव निश्चयेन मोक्षस्य कारणं भवतीति जानीहि । अथ विस्तारः - रागादिविकल्पोपाधिरहितचिचमत्कार भावनोत्पन्नमधुर रसास्वादसुखोऽहमिति निश्चयरूपं सम्यग्दर्शनं तस्यैव सुखस्य समस्त विभावेभ्यः स्वसंवेदनज्ञानेन पृथक् परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानं तथैव दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षप्रभूतिसमस्तापध्यानरूपमनोरथजनितसंकल्पविकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य हैं । और जो अपने निरंजन शुद्ध आत्मतत्त्वका सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण में एकाग्रपरितिरूप है वह निश्चय मोक्षमार्ग है । अथवा धातु पाषाणके विषय में अग्निके सदृश जो साधक है वह् तो व्यवहार मोक्षमार्ग है तथा सुवर्णके स्थानापन्न निर्विकार जो निज आत्मा है उसके स्वरूपकी प्राप्तिरूप जो साध्य है उस स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग है । इस प्रकार संक्षेपसे व्यवहार तथा निश्चय मोक्षमार्गके लक्षणको जानना चाहिये ||३९|| अब अभेदसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र निजशुद्ध आत्मा ही है इस कारण निश्चयनयसे आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग है इस प्रकार कथन करते हैं । अथवा पहले कहे हुए निश्चय मोक्षमार्गको ही अन्य प्रकारसे दृढ करते हैं । गाथाभावार्थ - आत्माको छोड़कर अन्य द्रव्यमें रत्नत्रय नहीं रहता इस कारण उस रत्नत्रयमयी जो आत्मा है वही निश्चयसे मोक्षका कारण है || ४० ॥ व्याख्यार्थ - " रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्ण दवियम्हि" निजशुद्ध आत्माको छोड़कर अन्य अचेतन द्रव्यमें रत्नत्रय नहीं रहता है। "तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा" इस कारण इस रत्नत्रयमय आत्माको ही निश्चयसे मोक्षका कारण जानो । अब विस्तारसे वर्णन करते हैं- राग आदि विकल्पोंकी उपाधिसे रहित जो चित् चमत्कारकी भावनासे उत्पन्न मधुर रस ( अमृत ) है उसके आस्वाद रूप सुखका धारक मैं हूँ इस प्रकार निश्चयरूप सम्यग्दर्शन है । और इस पूर्वोक्त सुखका जो राग आदि समस्त विभाव हैं उनसे स्वसंवेदन ज्ञानद्वारा भिन्न करना अथवा जानना है सो सम्यग्ज्ञान है । और इसी प्रकार देखे, सुने, तथा अनुभव किये हुए जो भोग उनमें वांछा करना आदि जो समस्त दुर्ध्यानरूप मनोरथ हैं उनसे उत्पन्न हुए संकल्पविकल्पोंके त्यागसे उसी सुखमें संतुष्ट तथा एक आकारका धारक जो परम समता भाव उससे For Private & Personal Use Only १७ Jain Education International www.jainelibrary.org

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