Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 134
________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन] बृहद्रव्यसंग्रहः १०७ तेन कारणेनोपचारेण ज्योतिष्कदेवकृत इत्यभिधीयते । निश्चयकालस्तु तद्विमानगतिपरिणतेर्बहिरङ्गसहकारिकारणं भवति कुम्भकारचक्रभ्रमणस्याधस्तनशिलावदिति ॥ इदानीमधंतृतीयद्वीपेषु चन्द्रादित्यसंख्या कथ्यते । तथाहि-जम्बूद्वीपे चन्द्रद्वयं सूर्यद्वयं च, लवणोदे चतुष्टयं, धातकीखण्डद्वीपे द्वादश चन्द्रादित्याश्च, कालोदकसमुद्र द्विचत्वारिंशच्चन्द्रादित्याश्च, पुष्करार्धे द्वीपे द्वासप्ततिचन्द्रादित्याश्चेति । ततः परं भरतैरावतस्थितजम्बद्वीपचन्द्रसूर्ययोः किमपि विवरणं क्रियते । तद्यथा-जम्बूद्वीपाभ्यन्तरे योजनानामशीतिशतं बहिर्भागे लवणसमुद्रसंबन्धे त्रिंशदधिकशतत्रयमिति समुदायेन दशोत्तरयोजनशतपञ्चकं चारक्षेत्रं भण्यते तच्चन्द्रादित्ययोरेकमेव । तत्र भरतेन बहिर्भागे तस्मिश्चारक्षेत्रे सर्यस्य चतुरशीतिशतसंख्या मार्गा भवन्ति, चन्द्रस्य पञ्चदशैव । तत्र जम्बूद्वीपाभ्यन्तरे कर्कटसङ्क्रान्तिदिने दक्षिणायनप्रारम्भे निषधपवंतस्योपरि प्रथममार्गे सूर्यः प्रथमोदयं करोति । यत्र सूर्य विमानस्थं निर्दोषपरमात्मनो जिनेश्वरस्याकृत्रिम जिनबिम्ब प्रत्यक्षेण दृष्ट्वा अयोध्यानगरीस्थितो निर्मलसम्यक्त्वानुरागेण भरतचक्री पुष्पाञ्जलिमुत्क्षिप्याधं ददातीति। तन्मार्गस्थितभरतक्षेत्रादित्यस्यैरावतादित्येन सह तथापि चन्द्रस्यान्यचन्द्रेण सह यदन्तरं भवति तद्विशेषेणागमतो ज्ञातव्यम् ॥ अथ 'सदभिस भरणी अद्दा सादी असलेस जेटुमबरवरा। रोहिणिविसहपुणव्वसु तिउत्तरा उस प्रकार उन ज्योतिष्कदेवोंके विमानोंकी गति परिणति ( गमनरूप परिणाम )में बहिरंग सहकारी कारण होता है। __अब ढाई द्वीपोंमें जो चन्द्र और सूर्य हैं उनकी संख्याका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-जंबूद्वीपमें दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं, लवणोदकसमुद्र में चार चन्द्रमा और चार सूर्य हैं, धातकीखण्ड द्वीपमें बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य हैं, कालोदक समुद्रमें बयालीस चन्द्रमा और तयालीस हो सूर्य हैं तथा पुष्करार्ध द्वीपमें बहत्तर चन्द्रमा और बहत्तर ही सूर्य हैं। इसके अनन्तर भरत और ऐरावतमें स्थित जो जंबूद्वीपके चन्द्र तथा सूर्य हैं उनका कुछ थोड़ासा विवरण करते हैं। वह इस प्रकार है -जम्बूद्वीपके भीतर एकसौ अस्सी और बाह्य भागमें अर्थात् लवणसमुद्रके संबंध में तीनसौ तोस योजन ऐसे दोनों मिलकर पाँचसौ दश योजन प्रमाण सूर्यका चारक्षेत्र ( गमनका क्षेत्र ) कहलाता है । सो चन्द्र तथा सूर्य इन दोनोंका एक ही है। इनमें भरतक्षेत्रसे बाह्य भागमें उस चारक्षेत्र में सूर्य के एकसौ चौरासी मार्ग होते हैं और चन्द्रमाके १५ ही मार्ग हैं। उनमें जम्बूद्वीपके भीतर कर्कट संक्रान्तिके दिवस जब कि दक्षिण अयनका प्रारम्भ होता है तब निषध पर्वतके ऊपर प्रथम मार्गमें सूर्य प्रथम उदय करता है। जहाँपर सूर्यके विमानमें वर्तमान जो निर्दोष परमात्मा श्रीजिनेन्द्र हैं उनके अकृत्रिम जिनबिंबको अयोध्या नगरीमें स्थित भरतक्षेत्रका चक्रवर्ती निर्मल सम्यक्त्वके अनुरागसे अवलोकन करके, पुष्पांजलि उछालकर, अर्घ देता है। उस प्रथम मार्गमें स्थित जो भरतक्षेत्रका सूर्य है उसका ऐरावत क्षेत्रके सूर्यके साथ तथा चंद्रमाका चंद्रमाके साथ और भरतक्षेत्रके सूर्य चंद्रमाओंका मेरुके साथ जो अन्तर ( फासला वा दूरी) रहता है वह विशेषतासे आगमोंसे जानना चाहिये । अब "शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, स्वातो, आश्लेषा, ज्येष्ठा ये छः नक्षत्र जघन्य हैं । रोहिणी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228