Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 139
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार द्वितीयादिपटलानि भवन्ति । अयं च विशेषः - श्रेणीचतुष्टये पटले पटले प्रतिदिशमेकैक विमानं होयते यावत्पञ्चानुत्तरपटले चतुर्दिक्ष्वैकैकविमानं तिष्ठति । एते सौधर्मादिविमानाश्चतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्र त्रयोविंशतिप्रमिता अकृत्रिम सुवर्णमयजिनगृहमण्डिता ज्ञातव्या इति । ११२ अथ देवानामायुः प्रमाणं कथ्यते । भवनवासिषु जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण पुनरसुरकुमारेषु सागरोपमम्, नागकुमारेषु पल्यत्रयं, सुपर्णे साधंद्वयं द्वीपकुमारे द्वयं शेषकुलषट्के सार्धपत्यमिति । व्यन्तरे जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण पल्यमधिकमिति । ज्योतिष्कदेवे जघन्येन पल्याष्टमविभागः, उत्कर्षेण चन्द्रे लक्षवर्षाधिकं पल्यं, सूर्ये सहस्राधिकं पल्यं, शेषज्योतिष्कदेवानामागमानुसारेणेति । अथ सौधर्मेशानयोर्जघन्येन साधिकपल्यं, उत्कर्षेण साधिकसागरोपमद्वयं, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः साधिकसागरोपमसप्तकं, ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोः साधिकसागरोपमदशकं, लान्तवकापिष्ठयोः साधिकानि चतुर्दशसागरोपमानि शुक्रमहाशुक्रयोः षोडश साधिकानि, शतारसहस्रारयोरष्टादश साधिकानि आनतप्राणतयोविंशतिरेव, आरणाच्युतयोर्द्वाविंशतिरिति । अतः परमच्युतादूर्ध्वं कल्पातीत नवग्रैवेयकेषु द्वाविंशतिसागरोपमप्रमाणादूर्ध्वमेकैकसागरोपमे वर्धमाने सत्येकत्रिशत्सागरोपमान्यवसाननवग्रैवेयके भवन्ति । नवानुदिशपटले द्वात्रिंशत्, पञ्चानुत्तरपटले त्रयस्त्रशत्, अनुसार संख्यात तथा असख्यात योजन जाकर इसी पूर्वोक्त क्रमसे द्वितीय, तृतीय, आदि पटल होते हैं । और विशेष यह है कि पटल पटलमें प्रत्येक दिशाकी प्रत्येक श्रेणीमें एक-एक विमान घटता है सो यहाँतक घटता है कि पंचानुत्तर पटलमें चारों दिशाओं में एक एक ही विमान रह जाता है । और ये सब सौधर्म स्वर्ग आदि सम्बन्धी विमान चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस (८४९७०२३) संख्या प्रमाण हैं । और अकृत्रिम सुवर्णमय जिनचैत्यालयोंसे मंडित हैं ऐसे जानने चाहिये । अब देवोंके आयुका प्रमाण कहते हैं । भवनवासियों में न्यूनसे न्यून दश हजार वर्षका जघन्य आयु होता है और उत्कर्षसे असुरकुमारोंमें एक सागर, नागकुमारोंमें तीन पल्य, सुपर्ण - कुमारों में ढाई पल्य, द्वीपकुमारोंमें दो पल्य और वाकी जो ६ प्रकारके भवनवासी हैं उनमें डेढ़ पत्यप्रमाण आयु है । व्यन्तरोंमें दस हजार वर्षका जघन्य और कुछ अधिक एक पल्यका उत्कृष्ट आयु है । ज्योतिष्क देवोंमें जघन्य आयु पल्यके आठवें भाग प्रमाण है, उत्कृष्टतासे चन्द्रमामें एक पल्य एक लाख वर्ष और सूर्यमें एक पल्य एक हजार वर्षका आयु है । शेष ज्योतिष्क देवोंका उष्कृष्ट आयु आगमके अनुसार जानना चाहिए। अब कल्पवासियोंमें जो सौधर्म तथा ईशान स्वर्गके देव हैं उनके जघन्यतासे कुछ अधिक एक पल्य और उत्कृष्टतासे कुछ अधिक दो सागर प्रमाण आयु है । सनत्कुमार तथा माहेन्द्र देवोंमें कुछ अधिक सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में कुछ अधिक दश सागर, लांतव कापिष्टमें कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र महाशुक्र में कुछ अधिक सोलह सागर, शतार और सहस्रार में किंचित् अधिक अठारह सागर, आनत तथा प्राणतमें पूरे बोस हो सागर, और आरण अच्युतमें वाईस सागर प्रमाण आयु है । अब इसके अनन्तर अच्युत स्वर्गके ऊपर कल्पातीत जो नव ग्रैवेयक हैं उनमें प्रत्येक ग्रैवेयकमें बाईस सागर प्रमाण आयुमें क्रमानुसार एक-एक सागर बढ़ायें जानेपर अन्तके नवें ग्रैवेयक में इकतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु होता है। नौ अनुदिशोंके पटल में बत्तीस सागर और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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