Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 69
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार संस्थानं यद्यपि व्यवहारनयेन जीवस्यास्ति तथाप्यसंस्थानाच्चिच्चमत्कारपरिणतेभिन्नत्वान्निश्चयेन पुद्गल संस्थानमेव । यदपि जीवादन्यत्र वृत्तत्रिकोणचतुष्कोणादिव्यक्ताव्यक्तरूपं बहुधा संस्थान तदपि पुद्गल एव । गोधूमादिचूर्णरूपेण घृतखण्डादिरूपेण बहुधा भेदो ज्ञातव्यः। दृष्टिप्रतिबन्धकोऽन्धकारस्तम इति भण्यते। वृक्षाद्याश्रयरूपा मनुष्यादिप्रतिबिम्बरूपा च छाया विज्ञेया। उद्योतश्चन्द्रविमाने खद्योतादितिर्यगजीवेषु च भवति । आतप आदित्यविमाने अन्यत्रापि सूर्यकान्तमणिविशेषादौ पृथ्वीकाये ज्ञातव्यः । अयमत्रार्थः-यथा जीवस्य शुद्धनिश्चयेन स्वात्मोपलब्धिलक्षणे सिद्धस्वरूपे स्वभावव्यञ्जनपर्याये विद्यमानेऽप्यनादिकर्मबन्धवशात् स्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वेषपरिणामे सति स्वाभाविकपरमानन्दैकलक्षणस्वास्थ्यभावभ्रष्टस्य नरनारकादिविभावव्यञ्जनपर्याया भवन्ति तथा पुद्गलस्यापि निश्चयनयेन शुद्धपरमाण्ववस्थालक्षणे स्वभावव्यञ्जनपर्याये सत्यपि स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धो भवतीति वचनाद्रागद्वेषस्थानीयबन्धयोग्यस्निग्धरूक्षत्वपरिणामे सत्युक्तलक्षणाच्छब्दादन्येऽपि आगमोक्तलक्षणा आकुञ्चनप्रसारणदधिदुग्धादयो विभावव्यञ्जनपर्याया ज्ञातव्याः । एवमजीवाधिकारमध्ये पूर्वसूत्रोदितरूपादिगुणचतुष्टययुक्तस्य तथैवात्र सूत्रोदितशब्दादिपर्यायसहितस्य संक्षेपेणाणुस्कन्धभेदभिन्नस्य पुद्गलद्रव्यस्य व्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् ॥१६॥ अधिक) स्थूलत्व है। समचतुरस्र ( चतुष्कोण ) न्यग्रोध, सात्तिक, कुब्जवामन और हुंड इन भेदोंसे षट् प्रकारका संस्थान यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके है तथापि संस्थान शून्य जो चेतनचमत्कार परिणाम है उससे भिन्न होनेके कारण निश्चयकी अपेक्षासे पुद्गलका ही संस्थान है; और जो जीवसे अन्य स्थानोंमें गोल, त्रिकोण, चौकोर आदि प्रकट तथा अप्रकट रूप अनेक प्रकारका संस्थान है वह भी पुद्गलमें ही है । गोधूम (गेहुँ) आदिके चून रूपसे तथा घी, खांड आदि रूपसे अनेक प्रकारका भेद जानना चाहिये । दृष्टिका प्रतिबन्धक (रोकनेवाला) जो अंधकार है उसको तम कहते हैं । वृक्ष आदिके आश्रयसे होनेवाली तथा मनुष्य आदिके प्रतिबिम्बरूप जो है वह छाया जाननी चाहिये । चन्द्रमाके विमानमें तथा खद्योत (जुगनू वा आग्या) आदि तिर्यञ्च जीवोंमें उद्योत होता है। सूर्यके विमानमें तथा और इससे भिन्न जो सूर्यकान्त आदि मणिके भेद हैं उन रूप पृथ्वीकायमें आतप जानना चाहिये । यहाँपर यह आशय है कि जैसे शुद्धनिश्चयनयसे जीवके निज आत्माकी प्राप्तिरूप सिद्ध स्वरूप में स्वभाव व्यञ्जन पर्याय विद्यमान है तो भी अनादि कालके कर्मबंधनके वशमें पुद्गलके स्निग्ध तथा रूक्ष गुणके स्थानभूत राग द्वेष परिणाम होनेपर स्वाभाविक परमानन्दरूप स्वास्थ्यभावसे भ्रष्ट हुए जीवके मनुष्य, नारक आदि विभाव व्यंजन पर्याय होते हैं; उसी प्रकार पुद्गलके भी निश्चय नयसे शुद्ध परमाणु अवस्थारूप स्वभाव व्यंजन पर्यायके विद्यमान होते हुए भी "स्निग्ध तथा रूक्षतासे बंध होता है।" इस वचनसे राग और द्वेषके स्थानको प्राप्त हुए स्निग्धत्व तथा रूक्षत्व परिणामके होनेपर पूर्वोक्त लक्षण शब्द आदिके अतिरिक्त अन्य भी शास्त्रोक्त लक्षणके धारक आकुञ्चन, प्रसारण, दधि, तथा दुग्ध आदि विभाव व्यंजन पर्याय जानने चाहिये ।। इस प्रकार अजीव अधिकारके मध्यमें "अज्जीवो" इत्यादि पूर्वसूत्रमें कथित रूप, रस आदि चार गुणोंसे युक्त तथा इस ‘सद्दो बंधो” इत्यादि सूत्र में कथित जो शब्द बंध आदि पर्याय हैं उन सहित तथा अणु, स्कन्ध आदि भेदोंसे भिन्न जो पुद्गलद्रव्य है उसका संक्षेपसे मुख्यपनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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