Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 74
________________ षड्द्रव्य-पश्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ४७ अथ निश्चयव्यवहारकालस्वरूपं कथयति; दव्बपरिवहरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो । परिणामादीलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो ॥ २१ ।। द्रव्यपरिवर्तनरूपः यः सः कालः भवेत् व्यवहारः ।। परिणामादिलक्ष्यः वर्तनालक्षणः च परमार्थः ॥ २१ ॥ व्याख्या-"दश्वपरिवट्टरूवो जो" द्रव्यपरिवर्तरूपो यः “सो कालो हवेइ ववहारों" स कालो भवति व्यवहाररूपः । स च कथंभूतः "परिणामादोलक्खो" परिणामक्रियापरत्वापरत्वेन लक्ष्यत इति परिणामादिलक्ष्यः । इदानों निश्चयकाल: कथ्यतेः- “वट्टणलक्खो य परमट्ठो' वर्तनालक्षणश्च परमार्थकाल इति । तद्यथा--जीवपुदगलयोः परिवर्तो नवजीर्णपर्यायस्तस्य या समयघटिकादिरूपा स्थितिः स्वरूपं यस्य स भवति द्रव्यपर्यायरूपो व्यवहारकालः । तथा चोक्तं संस्कृतप्राभतेन-"स्थितिः कालसंज्ञका" तस्य पर्यायस्य सम्बन्धिनी याऽसौ समयघटिकादिरूपा स्थितिःसा व्यवहारकालसंज्ञा भवति न च पर्याय इत्यभिप्रायः। यत एव पर्यायसंबन्धिनी स्थितिर्व्यवहारकालसंज्ञां भजते तत एव जीवपुद्गलसम्बन्धिपरिणामेन पर्यायेण तथैव देशान्तरचलनरूपया गोदोहनपाकादिपरिस्पन्दलक्षणरूपया वा क्रियया तथैव दूरासन्नचलनकालकृतपरत्वापरत्वेन च लक्ष्यते ज्ञायते यः स परिणामक्रियापरत्वापरत्वलक्षण इत्युच्यते । अथ द्रव्यरूपनिश्चयकालमाह । स्वकीयोपादानरूपेण स्वयमेव परिणममानानां पदार्थानां कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलावत्, शीत - अब निश्चयकाल तथा व्यवहारकालके स्वरूपका वर्णन करते हैं,---- गाथाभावार्थ--जो द्रव्योंके परिवर्तनरूप, परिणाम रूप देखा जाता है वह तो व्यवहारकाल है और वर्तना लक्षणका धारक जो काल है वह निश्चयकाल है ।। २१ ॥ व्याख्यार्थ-"दवपरिवटरूवो जो" जो द्रव्यपरिवर्तनरूप है "सो कालो हवेड ववहारो" वह व्यवहाररूप काल होता है। और वह कैसा है कि “परिणामादीलक्खो" परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्वसे जाना जाता है । इसलिये परिणामादिसे लक्ष्य है । अब निश्चयकालका कथन करते हैं । "वट्टणलक्खो य परमट्टो" जो वर्तनालक्षण काल है वह परमार्थ (निश्चय) काल है ।। अब इस व्यवहार तथा निश्चयकालका विस्तारसे वर्णन इस प्रकार है । जैसे-जीव तथा पुद्गलके परिवर्तरूप जो नूतन तथा जीर्ण पर्याय है उस पर्यायको जो समय, घटिका आदिरूप स्थिति है वही जिसका स्वरूप है वह द्रव्यपर्यायरूप व्यवहारकाल है। सो ही संस्कृतप्राभृतमें कहा भी है कि "स्थिति जो है वह कालसंज्ञक है'। तात्पर्य यह है कि उस द्रव्यके पर्यायसे सम्बन्ध रखनेवाली जो समय, घटिका आदिरूप स्थिति है वह स्थिति ही "व्यवहारकाल'' इस संज्ञाकी धारक होती है और वह जो द्रव्यकी पर्याय है सो व्यवहारकाल संज्ञाको नहीं धारण करती। और जो पर्यायसम्वन्धिनी स्थिति "व्यवहारकाल'' इस नामको धारण करती है इसो कारणसे जीव तथा पुद्गल सम्बन्धी परिणामरूप पर्यायसे, तथा देशान्तरमें संचलनरूप अथवा गोदोहन, पाक आदि परिस्पन्द लक्षणकी धारक क्रियासे, तथा दूर वा समोप देशमें चलनरूप कालकृत परत्व तथा अपरत्वसे यह काल जाना जाता है । इसीलिये वह काल, परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्व लक्षणका धारक कहा जाता है। अब द्रव्यरूप निश्चयकालका कथन करते हैं। अपने-अपने उपादानरूप कारणसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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