Book Title: Bruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01 Author(s): Udaychandra Jain Publisher: New Bharatiya Book CorporationPage 25
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्गारिका अचल: अङ्गारिका (स्त्री०) अंगारे, स्फुलिंग। (वीरो० ९/२४) अङ्गीकारक (वि०) धारण करने वाला, ग्रहण करने वाला। अङ्गारित (वि०) [अङ्गार+इतच्] अध जला, झुलसा हुआ। (जयो० वृ० १०/८०) अङ्गारितः (पुं०) पलाश-कली, लता। अलि: (स्त्री०) [अंग+उलि] अंगुली जयोदयकार ने 'पञ्चशाखः' अडारीय (वि०) [अङ्गार छ] कोयला तैयार करने की सामग्री। नाम दिया है। पांच अंगुलियों वाला हाथ। पञ्चशाखा अङ्गिका (स्त्री०) चोली, अंगिया। अङ्गलियो यस्य स हस्तः। (जयो० वृ० १/५१) अंगुष्ठ, अङ्गिन् (वि०) अवयवी, गुणी, एक दार्शनिक दृष्टि, जिसमें तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा (सुद० ३/२४) गुण-गुणी दोनों का महत्त्व होता है। अवयव के बिना अङ्गली (स्त्री०) अंगुली, पञ्चशाखा। अवयवी/गुणी और अवयवी/गुणी/अङ्गि के बिना अवयव/ अङ्गुलीमूल (नपुं०) नख, नाखून। (वीरो० १/८) अङ्ग/गुण भी संभव नहीं। (जयो० २६/८१) जैसे सौ पत्रों/ गीयकं (नपुं०) अंगूठीसहित। (जय०वृ० १०/४७) कलिकाओं का समूह शतपत्र कहलाता है। यहाँ सौ पत्रों अङ्गसह (वि०) अङ्ग में उत्पन्न, शरीर जय। (सुद० २/४१) और कमल में भेद नहीं है-अभेद है, क्योंकि एक-एक अष्ठः [अंग-स्था+ल] अंगठा। (जयो० ११/१९, १/५७), पत्र के पृथक् करने पर शतपत्र/कमल ही नष्ट हो जाता अङ्गष्ठनिगूढ (वि०) अंगुष्ठ से हाथ दिया। (जय०१२/९९) है। यही बात गुण और गुणी में भी है। प्रदेश भेद न होने अङ्गष्ठाङ्ग (वि०) अंगूठे का अग्रभाग। (जयो० ६/४८) से गुण में अभेद है, क्योंकि गुणों के कष्ट होने पर गुणी अड़े रुह (वि०) अङ्ग में उत्पन्न, शरीर जन्य। (सुद० २/४१) भी नष्ट हो जाता है। अङ्घि -अह्निः [अङघ्र असुन्] पैर, चरण, पाद। (जयो० अङ्गिन् (पुं०) प्राणी, जीव। (जयो० २/१३४) (सुद० ४/४१) ५/१००) घृणाङ्घृिणाधारि। (जयो० १/४७) कौतुकात् किल निरागसोऽङ्गिनः। (जयो० २/१३४) अङ्गिनो अङ्घिचाल (पुं०) पादविक्षेप, चरण गति। (जयो० ८/१४) जीवान् (जयो० वृ०२/१३४) अङ्गिनां प्राणीनां कष्टम्। अङ्घ्रिदासिका (स्त्री०) चरणोर्दासिका, सेविका। (जय०) (जयो० वृ० २/९९) अङ्घ्रिपः (पुं०) वृक्ष, तरु। (जयो० ४/२२) वायुनाघ्रिप अङ्गिन् (पुं०) पुरुष। अङ्गिनः पुरुषान्। (जयो० ३/७४) __ इवायमपापः। (जयो० ४/२२) अङ्घिय इव वृक्ष इव। अङ्गिजन (वि०) प्राणिवर्ग, जनसमूह। (जयो० १/९०) प्राणिवर्गाय | अङ्घ्रिपद्म (नपुं०) चरण कमल (जयो० १९/१८) जनशब्दोऽत्र समूहवाचकः। (जयो० वृ० १/९८) अच् (भ्वा०उभइदित-अक०) [अचति, अञ्चित, अञ्चन] अङ्गिमात्र (वि०) प्राणिमात्र। (सुद० ४/३५) सौहार्दमणिमात्रे तु जाना, हिलना, विनर्तन करना, सम्मान करना, प्रार्थना क्लिष्टे कारुण्यमुत्सवम्। (सुद० १/९८) करना, ०पहुंचना, प्राप्त करना। (जयो० ४/३४) अङ्गिना (वि०) संसारिणा, संसारगत। (वीरो० १/९) ०संसारस्थ, | अच् (पुं०) अच् प्रत्याहार, अ, इ उ, ऋ, लु, ए, ओ। प्राणि वर्ग युक्त। अचक्षुस् (वि०) नेत्रहीन, अन्धा। अङ्गिरः (पुं०) [अङ्ग अस्+इरुद] नाम विशेष। अचक्षुस् (वि०) ०अदृश्य, अदर्शनीय। रोग विशेष। ०अंधापन, अङ्गी (वि०) शरीरधारी, देहधारी। (जयो० २७/२) विमूढ, विमोह। अङ्गीकृ [अङ्ग+च्चि कृ०सक०] अंगीकार करना। अङ्गीकरोति अचङ्ग (वि०) विचारहीन, निर्विचार। (जयो० २७/५७) सम्भवता रसेन। अङ्गीकरोति किल सम्भवता रसेन। (जयो० अचण्ड (वि०) शान्त, क्षमाशील, सौम्य। १८/३२) (वीरो० २२/३५) अङ्गीकुर्यात् अचतुर (वि०) अनपढ़, अनाड़ी। अङ्गीकृतः (वि०) स्वीकृत, प्रतिज्ञ। (दयो० ५५) (सुद० अचर (वि०) स्थिर, दृढ़, अचल। १/१७) अचरः (पुं) स्थावर जीव। (१/५४) सुरुचिरा विचरन्ति चरा चरे। अङ्गीकृत्य-समेत्य स्वीकार करके। (जयो० वृ० १/५५) अचल (वि०) निश्चल, दृढ., निश्चल, निश्चित, स्थायी। अङ्गीकृतवती (वि०) स्वीकृतवती, स्वीकार की जाने वाली। (जयो० १/९४) यतिपतेरचलादर दामरे। ___ (जयो० वृ० ११/२) अचलः (पुं०) अचल पर्वत। स एवाचलः पर्वतः। (जयो० अङ्गीकरणं (नपुं०) स्वीकृति, सहमति। (दयो० ६७) ३/१९) सुमेरु। अङ्गीकरणयोग्यः (पुं०) स्वीकार करने योग्य। (दयो०६७) | अचलः (पुं०) अचल नामक नवां गणधर। (वीरो० १४/१०) For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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