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ब्रह्मविलास सम्यादभिती
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सम्यग्दृष्टिकी महिमा कवित्त. स्वरूप रिझवारेसे सुगुणं मतवारेसे, सुधाके सुधारेसे सुप्राण है. हु दयावंत हैं । सुबुद्धिके अथाहसे सुरिद्धपातशाहसे, सुमनके है . सनाहसे महाबडे महंत हैं। सुध्यानके धरैयासे सुज्ञानके करैयासे, सुप्राण परखैयासे शकती अनंत हैं । सवै संघनायकसे सवैवोलला यकसे सवै सुखदायकसे सम्यकके संत हैं ॥ १०॥ .
(सवैया) काहेको कूर तू क्रोध करै अति, तोहि रहैं दुख संकट धेरै ।। काहेको मान महाशठ राखत, आवत काल छिनै छिन नेरे ॥ काहेको अंध तु बंधत मायासों, ये नरकादिकमें तुहै गैरें।। लोभ महादुख मूल है भैया,तुचेतत क्यों नहिं चेत सवेरे॥११॥
कवित्त. जेते जग पाप होहि अध्रमके व्याप होंहि, तेते सब कारजको मूल लोभकूप है । जेते दुखपुंज होहिं कर्मनके कुंज होहिं, तेते सब ९ बंधनको मूल नेह रूप है ॥ जेते बहु रोग होहिं व्याधिके संयोग
होहिं, तेते सब मूलको अजीरन अनूप हैं । जेते जगमर्ण होहिं । र कार्की न शर्ण होहिं, तेते सब रूपको शरीरनाम भूप है ॥१२॥ है ज्ञानमें है ध्यानमें है वचन प्रमाणमें है, अपने सुथानमें है ताहिक पहचानुरे । उपजै न उपजत मूए न मरत जोई, उपजन मरन व्योहार ताहि मानुरे। रावसो न रंकसो है पानीसो न पंकसो है, अति ही अटकसो है ताहि नीके जानुरे । आफ्नो प्रकाश करे।
अष्टकर्म नाश करै, ऐसीजाकीरीति 'भैया' ताहिर आनुरे॥१३॥ है सेर आध नाजकाज अपनों करै अकाज, खोवतः समाज सब
(१) अन्न. bronse se asteeseen seasopisbaserte cadas dos
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