Book Title: Bramhavilas Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay View full book textPage 9
________________ so soran updade do do do do as yes 50/650/us पुण्यपचीसिका. ३ अलिप्त ज्यों गगन है || निश्चै परिणामसाधि अपने गुणें अराधि अपनी समाधिमध्य अपनी जगन है । शुद्ध उपयोगी मुनि रागद्वेष भये शून्य, परसों लगन नाहिं आपमें मगन है ॥ ६ ॥ श्रावकप्रशंसा. मिथ्यामतरीत टारी भयो अणुव्रतधारी, एकादश भेद भारी हिरदै बहतु है । सेवा जिनराजकी है यहै शिरताजकी है, भक्ति मुनिराजकी है चित्तमें चहतु है । बीसद्वै निवारी रीति भोजन न अक्षप्रीति, इंद्रिनिको जीत चित्त थिरता गहतु है । दयाभाव सदा धेरै, मित्रता प्रगट करै, पापमलपंक हरै मुनि याँ कहतु है ॥ ७ ॥ सम्यक्तकी महिमा. भौथिति निकंद होय कर्मवंद मंद होय, प्रगटै प्रकाश निज आनंदके कंदको । हितको दृढाव होय विनैको बढाव होय, उपजै अंकूर ज्ञान द्वितियाके चंदको ॥ सुगति निवास होय दुर्ग तिको नाश होय, अपने उछाह दाह करै मोहफेदको । सुख भरपूर होय दोप दुख दूर होय, यातै गुणवृंद कहैं सम्यक सुछंदको ॥ ८ ॥ श्रीजिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाको नमस्कार छप्पय. प्रथम प्रणमि सुरलोक, जहां जिनचैत्य अकृत्रिम | चैत्य चैत्य प्रतिबिंब, एकसो आठ अनूपम ॥ बहुरि प्रणमिमृतलोक, विम्ब जिनके जिहें थानक । कृत्य अकृत्तिम दुविधि, लसै प्रतिमा मनमानक पाताल लोक रचना प्रबल, तिहँ थानक जिनबिबँ विदित । तहँ तहँ त्रिकाल वंदित 'भविक' भावसहित शिरनायनि ॥९॥ ॐॐॐॐॐॐॐॐ Kate qe do qe as op 25 anapascetPage Navigation
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