Book Title: Bhavi Jineshwar Amamswami Charitra Mahakavya Part 02
Author(s): Muniratnasuri, Vijaykumudsuri
Publisher: Manivijay Ganivar Granthmala
View full book text ________________ श्रीअमम // 504 // दीक्षामम पश्चाद् भक्तिप्रहः सहस्रशः। उत्क्षेप्यसे रमणीया मुक्तिश्रीप्रहितेव सा // 24 // तत्र स्थाता प्रभुः पूर्वामुखे कण्ठीरवासने / पुण्यैरिवावृतश्छत्रचामरच्छमनोज्वलैः // 25 // तदा दिशो दशाप्युद्यत्तूयसांराविणाकुलाः। धास्यन्त्यनाहतोद्दामध्वनकामध्वजस्थितिम् | चरित्रम् / // 26 // क्रियमाणे जयजयध्वनौ मंगलपाठकैः / सुरासुरनरेन्द्रश्च भक्ति व्यक्तुं पुरःसरैः॥२७॥ वप्रप्रासादगेहाट्टतरुशाखाग्रवत्तिभिः। स्वीकरिष्यप्राप्तः पुराकरादीभ्यः प्रेक्ष्यमाणो जनैर्मुहुः // 28|| आशीर्मुखीभिवृद्धाभिर्वीज्यमानोऽश्चलैश्चलैः। कन्यकाभिः क्रियमाणलाजवृष्टिः पदे ति सहस्रपदे // 29 // शृंगारिणीभिर्व्यावर्ण्यमानः शृंगारजल्पितैः / धर्मलीनाभिरुत्साह्यमानो वैराग्यवर्णनैः // 30 // अन्वीयमानस्तन्वद्भिश्छा-15 नृपस्सह याद्वैतं समं मुदा। दिव्ययानदिवि सुरैर्भुवि च्छत्रैर्महीभुजाम् // 31 // भगवानऽममखामी शतद्वारपुरं क्रमात् / व्यतिक्रम्य सहस्रा मस्वामी म्रवणमुद्यानमेष्यति // 32 // प० कु०॥ स्वच्छन्दविकसत्कुन्दमरन्दस्वादतः खरैः। विशेषमधुरं गीगणैः प्रारब्धमंगलम् // 33 // उन्मीलत्पुलकांकूरपूरं लवलिकासुमैः / प्रवेक्ष्यति तदुद्यानमममो निर्ममाग्रणीः // 34 // युग्मम् / / तत्रोत्तीर्य शिबिकाया दीर्घायाः संसृतेरिख / अशोकस्य तले स्थित्वा हन्तुमन्तद्विषं स्मरम् // 35 // तदग्रसुभटं हन्तुं शृंगार तजनिप्रदम् / वस्त्राभरणसंभार स्वांगादुत्तार्य मोक्ष्यति // 36 // युग्मम् / / प्रभोः स्कन्धे देवदृष्यं शरचन्द्रांशुनिर्मलम् / शक्रो विमोक्ता विरतिलक्ष्मीप्रावारसोदरम् // 37 // शुक्ले तुर्यतिथौ माघे जन्मः पश्चिमेऽहनि / पञ्चभिर्मुष्ठीभिमालेः स केशानुत्खनिष्यति // 38 // स्वामिहस्ते स्थितः केशहस्तः प्रेक्षिष्यते | *सर्ग-१८ सुरैः। हस्तात्तमोहवीरस्याकृष्टमूर्द्धजसन्निभः // 39 // चेलाञ्चलेन तानिन्द्रः प्रतीष्य क्षीरनीरधौ / तूर्ण क्षेप्स्यति वालानां क्षीरयोगो हि शस्यते // 40 // वृत्रारिः पाणिमुत्क्षिप्य निषिध्य तुमुलं ततः / समयः समय इति स्वयमुद्धोषयिष्यति // 41 // क्लप्तषष्ठः कृत कृत- // 504 // सिद्धनतिरादास्यते ततः। चारित्रं सर्वसावद्यविरतिः प्रथमं प्रभुः॥४२॥ तत्र प्रव्रजिते राज्ञां सहस्रं प्रव्रजिष्यति / धर्मे तु चर्या युक्तव
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