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प्रस्तावना
खंडेलवाल जाति का विशेष सम्बन्ध पाया जाता है। इसी प्रकार काष्ठासंघ के माथुर गच्छ के अधिकांश अनुयायी अगरवाल जाति के, नन्दीतट गच्छ के अनुयायी हमह जाति के और लाडवागड गच्छ के अनुयायी बघेरवाल जाति के थे ।
अनेक जातियों में भाटों द्वारा जाति के सब बरानों का वृत्तान्त संग्रहित करने की प्रथा थी। ऐसे वृत्तान्तों में अक्सर किसी प्राचीन आचार्य के द्वारा उस जाति की स्थापना होने की कहानी मिलती है । नन्दीतट गच्छ के प्रकरण से सात होगा कि नरसिंहपुरा जाति की स्थापना का श्रेय रामसेन को दिया जाता था तथा भट्टपुरा जाति उन के शिष्य नेमिसेन द्वारा स्थापित मानी जाती थी। ऐतिहासिक काल में भी सूरत के भ. देवेन्द्रकीर्ति (प्रथम) को रानाकर जाति का संस्थापक कहा गया है । बघेरवाल जाति में मूलसंघ के आचार्य रामसेन द्वाग और काष्ठ.संघ के आचार्य लोहद्धारा धर्म की स्थापना हुई थी ऐसी कथा मिलती है। कई स्थानों पर जैनेतर समाजों में धर्मोपदेश दे कर नई जातियों की स्थापना की गई इसी का यह उदाहरण कहा जाता है । इतिहाससिद्ध न होने पर भी इन कथाओं को भावना की दृष्टि से कुछ महत्त्व अवश्य है ।
प्रत्येक जाति में नियत संख्या के कुछ गोत्र थे । मूर्तिलेख आदि में बहुधा इन का उल्लेख हुआ है। बघेरवाल जाति के पच्चीस गोत्र काष्ठासंघ के और सत्ताईस गोत्र मूलसंघ के अनुयायी थे । नागौर शाखा के भट्टारक बहुधा खंडेलवाल जाति के विभिन्न गोत्रों से लिए गए थे। लमेचू , परवार, हुमड आदि जातियों में भी गोत्रों के उल्लेख मिलते हैं। हूमड जाति में लघुशात्रा और वृद्धशाखा ऐसे दो उपभेद थे । इन्हें ही दस्सा और बीसा हमड कहते हैं। इसी प्रकार परवार जाति में अठसखे, चौसखे आदि भेद थे । ये भेद विवाह के समय कितने गोत्रों का विचार किया जाय इस पर आधारित थे। श्रीमार, ओसवाल आदि कुछ जातियां श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही है। किन्तु इन के भी कुछ उल्लेख दिगम्बर भट्टारकों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों के लेखों में मिलते हैं।
९. कार्य-तीर्थयात्रा और व्यवस्था तीर्थक्षेत्रों की यात्रा और व्यवस्था ये मध्ययुगीन जैन समाज के धार्मिक जीवन के प्रमुख अंग थे। तीर्थक्षेत्रों के दो प्रकार किये जाते हैं। जहां किसी. तीर्थकर या मुनि को निर्वाण प्राप्त हुआ हो उसे सिद्धक्षेत्र कहते हैं । जहां किसी व्यक्ति, मूर्ति, या चमत्कार के कारण क्षेत्र स्थापित हुआ हो उसे अतिशयक्षेत्र
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