Book Title: Bhaktamar Stotram Author(s): Gyanchand Jaini Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay View full book textPage 5
________________ भक्तामर स्तोत्र । बुझ्या विनाऽपि विवधार्थित पादपीठ, स्तोतुसमुद्यतमतिर्विगतचपोऽहम् । बालं विहाय जलसंस्थित मिंटू बिंब, मन्यःकइच्छतिजनः सहसाग्रहीतुम् ॥३॥ - 1 बुधा = बुद्धि से । बिना = गैर अपि = भी। विबुध - देवता । अचिंत, पूजित। पादपीठ - छोटी चौंकी। स्तोतुं - स्तुति करने के लिये । समुद्यत - तैयार मति बुद्धि । विगत = दूर होगई । त्रपा लज्जा (शरम) । अहं = में । वालं = वच्चेको। विहाय छोड़ कर जल पानी। संस्थित विस्व [मण्डल | अन्य दुसरा । कः कौन । इच्छति सहसा जलदी प्रहतुं पकड़ने को ॥ ठहरा हुआ । इन्दु चांद | चाहता है । जनः मनुष्य 5 अन्वयार्थ - देवताओं करके पूजा गया है पादपीट जिसका ऐसे हे स्वामिन् ! J दूर होगई है लज्जा जिसकी ऐसा में बुद्धि से बिना हो स्तुति करणे को तैयार हुधा हुँ, पानी में स्थित धान्द के प्रतिबिंध को बिना चालक के दूसरा कौन मनुष्य शीघ्र प्रहण करना चाहता है ॥ भावार्थ-जैसे जल में पड़े हुवे चान्द के प्रतिबिम्ध को महा मूढ़ बालक पकड़ना चाहे वैसे मैं आप की स्तुति करने लगा हुँ अर्थात् यहां आचार्य कहते हैं कि दे भगवन् जैसे पानी में पड़े चांद के प्रतिविम्व को पकड़ना असंभव है वैसे ही मेरी बुद्धि कर आपका स्तोत्र रचना असम्भव है, तो भी मैं शरम छोड कर आपका स्तोत्र रचने को उद्यमी हुआ हुं ॥ विधवध प्रभु मैं मतिहीन । होय निलज स्तुति मनसा कीन । जल प्रतिविम्व बुद्धको गहे । शशिमण्डल बालक ही चहे ॥३॥ ३ - विबुध देवता । निलज (निर्लज्ज ) = वैशरम | जलप्रतिविम्व = पानी में पड़ा हुवा चान्द का प्रतिविम्व । शशिमण्डल - चान्द | बुद्ध = पण्डित । गद्दे - पकड़े | बालक - यच्चा (मूर्ख) । हे इच्छे है ॥Page Navigation
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