Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 43
________________ - - ... .. . भक्तामर स्तोत्र। ४३ रक्तक्षणं समदकोकिलकंठनील, क्रोधीत फणिनमुत्फणमापतंतम्। . आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंक, . स्त्वन्नामनागदमनीहृदि यस्य पंसः॥४॥ 'रक-लाल । ईक्षण आंखे । समदं = मस्त । कोकिल - कोयल । कंठ = गला भील-नीला । क्रोधोवर-गुस्से से उन्मत्त । फणी साप । उत्फण ऊंची, फण किये आपतंतं - मा.रहे । माझामति वालेता है । क्रम =पांउ । युगन्जोड़ा। निरस्त वगैर । शंका-शाक । त्वत् = तेरा । नाम नाम । नागदमनी - नागदौन बूटी। कि दिलमें । यस्य = जिस के । सः =नर के ॥ .. .. ... ... { *: मन्वयार्थ हे स्वामिन् । सुरख आत्रे पाले मस्त कोयल के गले के समान नीले, गुस्से से उद्धत ऊंची करी है फण जिसने ऐसे आते हुथे सांप को "वह पुरुष" निर्भय होकर दोनों पावों से दबा सकता है जिस मनुष्य के दिल में आपके नामरूप नागदौनबेटी है। भावार्थ-नाग दमनी एक जड़ी होती है जिस के लगाने से कैसा भी जहरीलासपिने काटाहो बाधा नहीं कर सकता अर्थात् जहर उतर जाता है तो यहां आचार्य कहते हैं कि हे प्रभो भापके नाममें इतना असर है कि जो पुरुष मापके भक्त हैं आप पर निश्चय रखते हैं यदि महाकाला सुरख भाखो घाला गुस्से से भराहुआ सांप ऊंचीफणउठाएलोर से पुकारे मारता हुभा मुखले अग्निके चिङ्गाड़े निकलतेहुए किसी मापके भक्तकेसन्मुख भायेतो वह उसे देख कर नहीं डरता दोनों पैरों से दवा सकता है यदि वह 'काट भी खावे तो भापके नाम स्मरण रूपी नागदमन से भापके भक्तों को जहर नहीं बढ़ता। ... नोट-विषापहार में सेठ के पुत्र का जहर उतर गया था। कोकिल कण्ठ समान, श्यामतन क्रोधजलता । . रतनयन फुकार मार विष कणि उगलन्ता। फंण को ऊंचा करे वेगही सन्मुख धाया। तव जन होय निशंक, देख फणपतिको आया। जो डंके निजपावको, व्यापै विष न लगार । नागदमन तुम नामकी, हे जिनको आधार ॥४१॥

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