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भक्तामर स्तोत्र |
कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाह वेगावतारतरणातरबोधभीमें । यह जयं विजितद्यजेय पचा, Free पादपंकज नाश्रयिणो लभते ॥ ४३ ॥
- भाला (वरछी) । अत्र अग्रभाग । भिन्न फटा
गजं हाथीं ।
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शोणित
कुन्त भ - खून | धारि पानी। वाह - प्रवाह । वेग-जल्दी | अवतार तरणि- तैरना | आतुर - दुखी । योधे = योधा । भीम = भयंकर । युद्ध
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उतरना ।
लड़ाई ।
जयजीत । विजित जीते गए । दुर्जय - दुखसे जीतने योग्य। जेय - जतिने योग्य
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'पक्ष' = तरफ । त्वत् = तेरे । पाद - चरण । पंकजवन कमल समूह | माश्रयी
● आसरा लेने वाला । लभते - लभते हैं ॥
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'अन्वयार्थ' हैं प्रभो आपके चरण कमल रूप वनका आश्रय लेने वाले (भक्त)
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बरछी के अग्रभाग से मेरे (छेदे ) गए जो हाथी उनके खून रूप पानी के प्रवाह में जल्दी 'से उतरणे तथा पारजाने में दुःखी हो रहे हैं योधा जिस में इस लिये भयंकर युद्ध में जीत लिये हैं दुःखसे जीतने योग्य शत्रुपक्ष जिन्होंने ऐसे हुए हुए जय को प्राप्त होते ॥
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मावार्थ- हे भगवन ऐसे बड़े जंगोजदल में कि जहां फोज का घमलान हो
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जाने से खून की नदियां बहने लग जाये जिसमें बड़े २ योधा फसे हुए दुखी होकर पार जाने में असमर्थ हो ऐसे जंग में मुबतला भी आपके भक्त आपके नाम के स्मरण मात्र से ऐसे अजीत जंग को भी जीतकर फतह पाते हैं ॥ .
मारे जहां गजेन्द्र कुम्भ हथियारः विदारे । उमगे रुधिर प्रवाह, वेग जल से विस्तारे । 'होय तिरण असमर्थ, महा योधा बल पूरें । : तिसरण में जिन तोय, भक्त जे हैं नर सूरे। दुर्जय अरिकुल जीतकर, जय पावें निकलंक 1 तुम पद पंकज मन बसें, ते नर सदा निशंके ॥ ४४ ॥