________________
५० भक्तामर स्तोत्र । स्तोत्ररोज तब जिनेंद्रगुणैनि बब्बी, . भत्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम् । धत्ते जनो य इहकंठगतामजलं, :. तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥
स्तोत्रम स्तोत्र रूप माला को। तब-तुम्हारी जिनेन्द्र-जिनेश । गुणमाधुर्यादि काव्य गुण, वा, सूत । निवद्ध गून्धी (रचौ) मत्या भक्ति से। मयामैंने विविध अनेक प्रकार की। वर्ण रंग । विचित्रका रंग की पुष्पा फल । धसे पहिनता है । जना मनुष्य । यः जोह यहां । कंठ-गलागता पड़ी हुई। अजन्न-निरंतर (लगातार) । उसे । मान इज्जत । तुंग उंचावा "मानतुंग" कवि का नाम है । अवशान वश होने वाली समुपैति मच्छी तरह प्राप्त होय है । लक्ष्मी-श्री, शोना, मुक्ति॥ ___ अन्वयार्थ हे जिनेश भक्ति करके तुम्हारे गुणों से गन्थी दुई भनेक भक्षर अप विचित्र हैं फूल जिसमें कंठ में प्राप्त इस स्तोत्र रूपमाला को जो पहिन लेता है मान से ऊंचे उस मनुष्य को भी लक्ष्मी (मुक्ति) प्राप्त होती है। . .
भावार्थ-इस स्तोत्रके पढ्नेका महास्य यह है कि इस में वर्णन करे जो जिनेन्द्र ' के गुण वही भया तागा और इस के शब्द वही नवे रंग बिरंग के फलों की माला जो नर कंठ में पहने अर्थात् इस को कंठ कर नित्य पहें वह इज्जत, लक्ष्मी माला दरजे के स्तवै खिलत मौर स्त्री पुत्रादिक हर किसम के मनोवांछि कायम रहने पाले . फळपाय मुक्ति के भागी होवेंगे।
यह गुण माल विशाल नाथ तुम गुणन समारी। विविध वर्ण के पुष्प, गून्य में भक्ति विद्यारी ॥
जोनर पहिरे कंठ भावना मनमें भावे ।
'मानतुङ्ग वह निज अधीन शिवलक्ष्मी पावे ॥४८ - दोहा-भाषा भक्तामर कियो, हेमराजहितहेत।
जे नर पढ़ें स्वभाव सों ते पायें शिव खेत .