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'भक्तामर स्तोत्र ।
आपादकंठ मुरुशृंखलवेष्टितांगाः, गाढवहन्निगड कोटिनिघष्टजंघाः । त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरतः,
...सद्यः स्वयं विगत बंधभया भवति ॥४६॥
आपाद कंठ - पांव से कंठ तक उस वडा | शंखल = सांकल | वेष्टित | लपेटा गया ।. अंग- शरीरं ।' गाउँ - मजबूत । बृहत् = बडे २ । निगड - जंजीर · ( सांकल ) | कोटि == अग्रभाग | निघृष्ट असगई। जंघा - दोगें । त्वन्नाममन्त्र . तुम्हारा नाम रूपी मन्त्र । अनिश = दिनरात मनुजे - मनुष्य ।' स्मरन्तः = याद करते हुए सद्यः = शीघ्र । वस्य = अपने आप । विगत - दूर होगया। बंध-बंधन मंत्र 'डर | भवति होजाते हैं ॥
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अन्वयार्थ-पाँव से गले तक बड़े मारी सकिल से लपेटे हैं शरीर जिनके गाढ़ी बेड़ी की फोटो से घिस गई है, जंघा जिनकी ऐसे मनुष्य तुम्हारे नामरूप मंत्र, फो दिनरात जपते हुए जल्दी हो अपने आप टूट गए हैं बंधन जिन के ऐसे हो जाते हैं ।
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भावार्थ -- हे प्रभो भांपके नाम मात्र में इतना प्रभाव है कि जब राजा आदि संकलों से जकड़ कर भोरों में डाल ताले ठोक देते हैं तब ऐसी कठिन मीढ़ पड़ने पर. आपके भक्त आपका नाम रूपी संत्र का स्मरण करते हैं तो अपने आप के तमाम बंधन टूट. सर्व भय दूर हो जाते हैं ॥
पांव कण्ठ से जकर, बान्ध सांकल अति मारी । गाढ़ी बेड़ी पैर माहिं, जिनजांघ विदारी । भख प्यास चिन्ता, शरीर, दुःख जे विललाने । शरण नाहि जिन कोय, भूप के बन्दीखाने ।
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तुम सुसरत स्वयमेव ही, बन्धन सब खुल जाहिं । -छिनमें से संपति कहें, चिन्ताभय विनसाहि ॥ ४६