Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 47
________________ - - . भक्तामर स्तोत्र। ४७ उदभूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः, - शोच्या दशामुपगतागतजीविताशाः। त्वत्पादपंकजरजोऽमृतदिग्धदेहा, मयां भवंति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥ - उद्भूत-होगया । नीषण भयंकर । जलोदर पेटका रोगामार भार। भुग्न कुबड़े। शोच्या शोक के योग्य । दशा हालत । उपंगता प्राप्त हुई। गत दूर हो गई । जीवित जीना । आशा = आस । त्वत्पाद - तेरे पांव। पंकजकमल । रजोधूल। अमृतम्भमृत । दिग्ध-लिपा । देह शरीर । मां - मनुष्य भवन्ति-होय हैं मकरध्वज कामदेव । तुल्य समान । कंप-शकल ।।. अन्वयार्थ हे प्रभो! बढ़ गए भयंकर जलोदर रोग के भार से टेडे होगये भौर दूर होगई है जीपने की आशा.जिनकी इसी लिये शोक की दशा (हालत) को प्राप्त हो गए ऐसे भी मनुष्य मापके चरण कमल की धूल रूप ममृत से लिप गए हैं। शरीर जिनके सो तो कामदेव के तुल्य रूप पाले होजाते हैं। भाषार्थ हे भगवन् मापके चरणों की रज में इतना असर है कि छोटे मोटे रोग का तो क्या जिकर जलोदर सारखे ला इलाज मरज जिनको होजाने से उनकी • जिन्दगी की भाशा नहीं रहती भापके चरणों की रज रूपी अमृत शरीर के लगाने से उनके सर्व रोग दूर हो कामदेव समान कंचन वरण शरीर होजाता है। _' नोट-भगवान् के प्रतिविम्य के प्रक्षालन मात्र जल लगाने से कोटीमट प्रापाल का कुष्ट दूर हो सुवर्णसा शरीर हुआ है। महा जलोदर रोग; भार पीड़ित जेनर हैं। वात पित्त कफ कुष्ट, आदि जे रोग गहे हैं।.. सोचित रहे उदास, नाहि जीवन की आशा। अति घिनावन देह, धरें दुर्गन्ध निवासा। • तुमपदं पंकज धूलको जेलांवें निज अङ्ग। ... ते नौरोग-शरीर लहिं, छिन में होंय अनंग ॥ ४५॥..

Loading...

Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53