Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 42
________________ ____ भक्तामर स्तोत्र। कल्पान्तकालपवनोदतवह्निकल्पं,. दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिंगम्।। विश्वं जिघत्सुमिव संमुखमापतन्तं,.. त्वन्नाम कीर्तनजलं शमयत्यशेषम्॥ ४०॥ ... . कल्पांतकाल - प्रलयकाल पवन हवा । उद्धत मड़कती। वह्नि आग। कल्प -घरोवर । दावानल =धनकी आग । ज्वलित घलती। उज्वल धर्मक। उत्स्फूलिंग-जिस से चिंगयाड़े निकल रहे हैं । विश्व जगत् ! जियत्सु नखाने की . स्वाहिश वाला । इज-जैसे संमुखं = सामने। आपनत् भाते हुए उत्पन्नाम तेरे नाम' कीर्तन, कथन करणा जल =पानी, शमयति = शान्त करता है । अशेष-सकल ॥ . ' ' अन्वयार्थ-हे भगवन् ! प्रलयकाल को पवन कर उड़ाये वा भड़काये माग के समान बल रहे चमकीले ऊंचे विनगायें से शोभित संसार के खाने की इच्छा से, मानो सांइने आ रही बनकी तमाम आग को आप का नामोच्चारण रूपंजल शांत कर देता है।। . . . . . . . . भावार्थ-यद्यपि अग्नि जल से शांत होय है तो भी प्रलयकाल की पवन कर उभारी हुई मासमान तक जिस के भभकारे जारहे हैं चारों तरफ से बलतो भा, रही ऐसी भयानक अग्नि भी भगवान के नाम रूपी जल से शांत हो जाती है।... नोट-जैले सीता सतीकर उच्चारण किये प्रभु के नाम रूपी जलने अग्निकुण्ड को शांतकर कमलों सहित प्रफुल्लित पानी का सरोवर बना दिया था . . . . प्रलय पवन कर उठी, अग्न जो तास पटतर। . चौफुलिङ्ग शिखा, उतङ्ग पर जले निरन्तर। . जगत् समस्त निगल कर, भस्म करेगी मानों। तड़तडाट दवजले, जोर चहूं दिशा उठानो। सो इक छिन में उपशमैं, नाम नीर तुमलेत । होय सरोघर परणमें, विकसित कमल समेत ॥१०॥ :.

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