Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 10
________________ १० . . भक्तामर स्तोत्र। मत्वेति नाथ तव संस्तवनंमयेद, मारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात्। चेतोहरिष्यति सतां नलनीदलेश, मुक्ताफलद्युतिमुपैति नन्दविन्दुः ॥८॥ , मत्वा मानकर । इति यह । नाथ: स्वामिन् । तर तुम्हारा। संस्तवन -स्तोत्र मिया मेरेसे । - यह । आरभ्यते -शुरु किया गया है तनुधिया कम घुदि ।मपि -भी। तब-तुम्हारे। प्रभाव:-प्रताप । चेतो-दिलको । हरिष्यति -धुरालेगी। सतां सज्जन । नलिनी-कमलिनी दल-पत्र:। मुक्ताफल = मोती। युति कांति । उपैति-पाता है । ननु निश्चय से । उदनिन्दुजलकी बून्द । . अन्वयार्थ-हे स्वामिन् । यह जान कर तुम्हारे प्रभाव से थोडी बुद्धि करके भीतुम्हारा स्तोत्र मेरे से शुरू किया जाता है तो यह स्तोत्र सज्जनों के चित को हरेगा। जल की बुन्द कमलनी के पत्ते पर पड़ी हुई मोती की शोभा को धारती है। भावार्थ-हे भगवन जैसे कमल के पत्र पर पड़ी हुई पानी की वन्द मोती समान भासती है यही मानकर मैंने आपका स्तोत्र बनाना शुरू किया है । .. सो उमेद करता हूं कि मुझकम इलमसे किया हुआ यह आप का स्तोत्र (गुणानुवाद) सज्जनों के चिस को हरेगा ।। ' , :. . तुमप्रभाव ते करूं विचार । होसी यह थुति जनः मन हार ज्यों जल कमल पत्र पै परे । मुक्ताफल की युति विस्तरे ॥ ८|| -प्रभाव - प्रताप । होली = होवेगी । मनहार=मन को हरने वाली। पत्र -पचा। पर गिरे। मुक्ताफल- मोती थुति = फान्ति ।

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