Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 17
________________ भक्तामर स्तोत्र। १७ चिकिमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि, ' !तं मनागपिमनी न विकारमार्गम्। कल्पांतकालमरुता चलिताचलेन, कि मंदरादिशिखरं चलितं कदाचित् ॥१५॥ चित्र आश्चर्य। किंक्या । अत्र = यहां। यदि जेकर । ते तुम्हारा। त्रिदश-देवता अंगना ली। नीतलिजाया गया। मसाक्-थोड़ासा । अपिभी। मन:-दिल । न-नही । विकारमार्ग-विकार का रास्ता। कल्पान्तकाल - प्रलयकाल । मरुत-पवन(हवा) । चलता चल-हिला दिये हैं पहाड़ जिसने । किक्या। मन्दरादि मन्दिराचल पहाड़ (मेरू) । शिखर चोटी। चलितं हिलता है। कदाचित् = कमी भी॥ ___ अन्वयार्थ--हे प्रभो यदि (अगर) अप्सराओं से आपका मन थोड़े से विकारमार्ग (काम विकार) पर नहीं लाया गया तो इस में आश्चर्य ही क्या है । । ___-हिलादिये हैं पहाड़ जिसने ऐसे प्रलय काल की वायु करके क्या कभी मन्दिरांचल (मेरु) पहाड़ की चोटी हिल जाती है (कभी नहीं) ॥ भावार्थ-हे स्वामिन जैसे प्रलय की वायु सभी पहाड़ों को हिलाती है परन्तु में को नहीं हिला सकतीतैसे ही इन्द्रादिकों के भी मन को विकार उपजाने वाली अप्सरा यदि भाप के मनको नहीं हिला सकी तो इस में कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि भाप का मन निष्कम्प है उसे कोई भी कम्पायमान नहीं कर सत्ता ॥ जो सरतिय विभ्रम आरम्भ। मन न डिगो तुम सो न अचंभ। अचल चलावे प्रलय समीर। ' मेरु शिखर डिगमगे न धीर ॥१५ १५-सुरतिय =देवांगना । विभ्रम - विलास (क्रीडा) अचंभ आश्चय्य । भचल- पहाड़। समीरपायु ॥

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