Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

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Page 21
________________ भक्तामर स्तोत्र | किं शर्वरीषु शशिनाऽह्निविवस्वतावा, युष्मन्मुखेद दलितेषुतमस्सुनाथ । निष्पन्नशालिबनशालिनि जीवलोके, कार्य कियन्जलधरैर्नलभारनामे: ॥१६ ॥ किं - क्या | शर्वरी = रात । शशिना = चांद से । भह्नि = दिन में । विवृस्वाम = सूर्य । वा = अथवा | युष्मद् - आपके । मुखेन्दु - मुखरूप चांद | दलित = दले गये तमः अन्धेरा | नाथ = स्वामिन् । निष्पन्न = पैदा हुए। शालिबन = चावलों के खेत शाली - शोभने वाले । जीव लोक- मनुष्यलोक । कार्य काम । कियतू कितनी जलघर = मेघ । जलभार = पानी का भार । नम्र नीचे हुवे । V २१ 記 & अन्वयार्थ - हे स्वामिन्! आपके मुखरूप चांद से अन्धेरे के नष्ट होजाने पर रात में चांद से और दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन है जब जगत् पके हुए धानों के समूहसे शोभता है तब जलभार से नीचें हो रहे जो मेघ हैं उनसे क्या फायदा है ॥ भावार्थ - हे भगवन् जैसे चावलों के खेत पक जाने पर सजल मेघ का झुक कर आना अकारथ है वैसे ही जब रात के अन्धेरे को चांद दूर करता है और दिन में सूर्य अन्धेरे को दूर करता है सो यदि दोनों चर्चा के अंधेरे को तुम्हारे मुखरूपी चंद्रमा ने दूर करदिया तो तब इन की क्या जरूरत है ॥ निश दिन शशि रवि को नहि काम | तुम मुख चन्द हरे तम धाम ॥ जो स्वभाव से उपजे नाज ! सजल मेघ तो कौन है कार्ज ॥ १९ ॥ १९-तम-अन्धेरा । सजल मेघ - पानी बाला बादल

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