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२८ भक्तामर स्तोत्र। तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहरायनाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय, तुभ्यं नमी जिनभवोदधिशोषणाय ।२६ ।
तुभ्यं माप के ताई नमः = नमस्कार हो। त्रिभुवन त्रिलोकी । माति. पीडा । हर-हरणेवाले ! नाथ स्वामिन् । तुभ्यं -तुसे। नमः -प्रणाम हो। क्षिति. वल-पृथ्वी वल (भूतल)। अमल-शुद्ध । भूषण जेवर । तुभ्यं मापके ताई। नमः-प्रणाम भिजगत् = त्रिलोकी । परमेश्वर स्वामी । तुभ्यं = मापको । नमःनमन हो। जिन-जिन । भवोदधि-संसारकर समुद्र शोषण-सुकाने वाले
'मन्वयार्थ-हे जिन तीन भवनों के दुःख दूर करने वाले आप को नमस्कार हो। पृथ्वी में शुद्ध भूषण कप माप को नमस्कार हो। हे तीन जगत के परमेश्वर भाप को नमस्कार हो । हे संसार समुद्र के सुकाने वाले आप के ताई नमस्कारहो।
भावार्थ-इस श्लोक में श्रीमानतुंग भाचार्य ने भगवान के मिन्न भिन्न गुण +परणन कर वारंवार नमस्कार करी है।
नमों करूं जिनेश तोहि आपदा निवार हो। नमों करूं सुभूरि भूमि लोक के सिङ्गार हो । नमों करूं भवाब्धि नीर रास शोष हेत हो। नमों करू महेश तोहि मोक्ष पन्थ देत हो ॥२६॥
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२१-आपदा-दुःख भुरि बहुत भवाग्धि संसार समुद्रमार राख -पानी कासमूह । मदेश-शिव ।