Book Title: Bhaktamar Stotram
Author(s): Gyanchand Jaini
Publisher: Digambar Jain Dharm Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ . . .. . ...... " भक्तामर स्तोत्रा २७ बुद्ध स्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धिबोधात्, : त्वं शंकरोसि भवनत्रयशंकरत्वात् । : धातासि धीरशिवमार्गविधेविधानात, व्यक्त त्वमेवाभगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ॥२॥ बुद्धबुद(जानी) । त्वं त्। एत्र हो । विवुध-देवता अर्चित - पूर्जित। : बुद्धि बोध-शुद्धि का बोध (प्रकाश)। श्वं तु । शंकर शिव । असिन् । भुवन . प्रया तीनलोक। शंकर मंगलका !-धाता, ब्रह्मा । धीर धीरजवाला शिवमार्ग " मुक्ति का रास्ता ।-विधि-तरीका। विधान:-बनाना यक्त = साफ । त्वमेव हो भगवन् पेश्वर्य बाली । पुरुष मनुष्य । श्रेष्ठ। पुरुषोत्तम-विष्णु भलिबल • गन्धयार्थ-हे देवतावों से पूजित बुद्धि को बोध करने से तुही इन तीन.. . भुधनों को कल्याण करणे से न शकर हैं। हे धीर मोक्षमार्ग की विधि (तरीके) के विधान से तू (ब्रह्मा) हैं। हे भगवन् तूही स्पष्ट पुरुषोत्तम है। भावार्थ:-हे धीर देवताओं कर पूजित तू-बुद्धि का योधन करने से बुद्ध है। तीन लोक के मंगल करता होने से तुही शंकर है और मोक्षमार्ग की विधिका करने - पाला होने से तुही विधाता है.। और तुही पुरुषोत्तम कहिये.नरों में उत्तम (श्रेष्ठ है ।। तुही जिनेश बुद्ध हो सुबुद्धि के प्रमान से ।.... तुही जिनेश शंकरो जगयीविधान से॥ तुही विधात है सही सुमोक्षपन्थधार से। नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचार से ॥ २५॥..........

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53